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Thursday 3 September 2015

कुछ अफ़साने : लाज़िमी हैं

कुछ अफ़साने : लाज़िमी हैं --(7)

ये कुछ नया ढंग था। सर ढका हुआ था , और चेहरा भी। ऐसा ही हुलिया तो इसके दोस्त का था , और ऐसा ही भाई  का । पर वो दोनों तो नहीं आने वाले थे आज। सर से मुआइना करते - करते नज़र ज्यों ही पैरों पर पड़ी , उसने राहत की सांस ली … तो आ गए जनाब ....  और बस , उसे खुराफात सूझने लगी। वो धीरे - धीरे चलता अंदर आ गया। गरदन घुमाता,सर खुजाता  पहुँच गया अपने वाले  कोने में। सर से साफा उतारा  और बिना कुछ बोले पसर गया दीवान पर। जिस तरह वो पसरा था , उसे देखकर  इसे अपने  शहर  के सांड याद  आ गए ,  जो बीच घंटाघर रास्ता रोक कर पसरे रहते। भगाओ तो सींग मार कर भगा  देते थे। इतना तो यक़ीन था कि सींग नहीं मारेगा। नथुने फड़काएगा ,गरदन झटकायेगा और कॉफ़ी पीकर सो जाएगा।

आज वो नहीं , उसके पैर पहचान बनकर इसके दरवाजे आये थे।

''सुन ,तेरा सर तेरे धड़ पर ना भी रखा हो , तब भी मैं तुझे पहचान सकती हूँ। ''

बहुत बेज़ारी से सर उठाया उसने , अनमना सा उसकी तरफ देखने लगा , जैसे कह रहा हो 'भर पाया मैं तेरी बातों से ', लेटे - लेटे ही पैरों से चप्पल  खिसकायी और दीवार की तरफ करवट बदल ली। फर्श पर रेत बिखर  गई। रेत का बिखरना और इसका बिफरना एक साथ हुआ। काबू किया खुद को और उसे अपने रौशन ख़याल से वाकिफ कराने लगी। जोश में थी।

''चेहरे ही क्यों पहचान हों , पैर क्यों नहीं। पैर भी तो कितने अलग होते हैं हम सब के। कितना मज़ा आता ये कहने में , ''ला ला ला के पैर कितने भारतीय हैं , री री री के पैर क्लियोपेट्रा की तरह और ना ना ना के  पैर मर्लिन मुनरो  जैसे  …शा शा शा के पैरों  में  पंजाब के जालंधर की छाप हैं। और वो  ... क्या नाम है  .... तेरी पहाड़न का ? उसके तो पैरों के नाखून मंगल चाचा की भैंस यामा की तरह  … लम्बे ...नुकीले , इसे तू मेरी हसद समझ ले। और मेरे पैर - डी सी पी मीणा की तरह , एकदम पुलसिया , उनके लिए जो बातों से नहीं मानते। रहे तेरे पैर ,तो वो भूत के पाँव -- बिना बताए भूत की तरह गायब।

'' सोने भी दे मुझे। ''
'' ये मुमकिन नहीं। ''
'' क्या बिगाड़ा है मैंने तेरा  ? ''
'' क्या बिगाड़ सकता है तू  ? ''
'' माफ़ी मांग रहा हूँ , अब सोने दे। ''
'' मैं मांग लेती हूँ।  तू उठ के बैठ। ''
'' क्या बिगाड़ा है मैंने तेरा ? ''
'' डायलॉग रिपीट  करेगा तो फ़ाउल हो जाएगा। ''
'' किस जनम का बदला ले रही है ? ''
'' इसी .... बिलकुल इसी जनम का। तू फिर मिला ना मिला। ''
'' टी वी चला दे , रहम कर। शेयर बाज़ार  का बुरा हाल है। ''
''तुझसे भी ज़्यादा ?''
'' क्या चाहती है , पैर पकडूँ तेरे ?''
'' हा हा … पैर  ... हाँ, पकड़ ले। मेरी एड़ी पर मोहब्बत का बोसा दे। ''
''ये क्या बात हुई ?''
'' तू ही तो कहता है कि मोहब्ब्बत में कोई ऊँच नीच नहीं। सब बराबर है। कोई सिर , कोई पैर नहीं होता  ---- वैसे तेरी बातों का भी कोई सिर - पैर नहीं होता।  तू न कहता था जब देर देर रातों को वो लम्बी-लम्बी रूहानी बातें किया करता था   कि सब साँझा , सब हमारा होता है,एक सांस की दूरी है तेरे - मेरे बीच , और तू , मैं हो जाएगा।  जब चेहरा पहचान था तब लब , और अब जब पैर हमारी पहचान हैं तो मोहब्बत का बोसा एड़ी पर ही तो बनता है। ''
'' तुझे पता है , तू क्या कह रही है ''
'' तुझे तो पता है न ,तू क्या क्या कहता है ,किस किस से कहता है --- और क्या क्या करता है ? ''
'' एक कप चाय पिला दे।''
'' भूल रहा है।  डायरी में लिख  कर रख। मेरे साथ  एक कप कॉफ़ी पीता है तू ।''
'' कॉफ़ी ही पिला दे। ''
'' ज़हर कितना ? एक चम्मच ? ''
''तुझे लगता है तू बच जाएगी ? ''
'' मेरी हिफाज़त तो तू करेगा ना । अपनी जान की हिफाज़त नहीं करेगा ? और इतनी ज़ोर से 'सड़प' मत कर , कॉफ़ी है ,ज़हर नहीं। ''
'' क्या पता मेरे ही हाथों मारी जाए ''
'' तू मेरा बाल तक तो छू  नहीं पाया आज तक । ''
'' बाल बाल बची है तू हर बार। हो सकता है ऊपरवाला  इतना मेहरबान ना हो इस बार। ''
''हो सकता है कोई नीचेवाला  तेरे गले के नाप का फंदा बनवा कर बैठा हो। '' 
''मेरे हाथ ही काफी हैं तेरे लिए। ''
''तू तो कहता है मैं मज़ाक नहीं करता। ''
'' संजीदा मज़ाक कर लेता हूँ। ''
''मैं भी मौके का फायदा उठा लेती हूँ आज। मेरा भी बहुत मन है तेरे साथ मज़ाक करने का। मैं मज़ाक कर रही हूँ कि तू तभी तक महफूज़ है , जब तक मैं सलामत हूँ। जब तेरा जीने से मन भर जाए , तू ज़िन्दगी से ऊब जाए , तो मुझे गोली मार देना। सुबह उठकर पेट साफ़ करने से पहले ,मुंह साफ़ करते वक़्त पहले कुल्ले के साथ पहली दुआ मेरे लिए किया कर कि मुझे बुखार भी ना हो , नहीं तो मच्छर के हलक में हाथ घुसेड़ा तो तेरा ही नाम निकलेगा। तेरा दर्जा अब आई एस आई का है , मच्छर तेरा एजेंट , ..... और मैं हिंदुस्तान। ''

''कुछ काम भी कर लिया कर , कितना बोलती है। "
'' अरे हाँ , अच्छा याद दिलाया। काम शुरू किया है मैंने। ''
''शुक्र है ,क्या काम ?''
''कुंडली बनाने का, तेरी भी बनायी है। ''
'' ..... ''
'' तेरा पैर क्यों लटक गया ? ''
'' …… ''
''अरे , तेरे पैर का रंग क्यों उड़ गया ?''
''मैं चलता हूँ। ''
''सुन ,तू अपनी मोहब्बतें जारी रख और मुझे अपना पैर अब कभी मत दिखाना। ''

वो जिन पैरों से आया था , उन्ही पैरों से लौट गया।

कॉफी ठंडी यख हो चुकी थी।
पहला घूँट अभी हलक में ही था ।

कुछ अफ़साने : लाज़िमी हैं


कुछ अफ़साने : लाज़िमी हैं -(6)

दरवाज़े की घंटी बजी ...

हिरण की तरह कुलाँचे मारती हुई दरवाज़े की तरफ दौड़ी   ...  रास्ते में एक कुर्सी , एक मेज़,एक ज़मीन पर औंधे पड़े गद्दे  और एक पायदान से टकराई  .. हैरत की बात थी कि किसी को भी चोट नहीं आई थी  .. गुलदान अपनी अच्छी किस्मत के चलते पहले  ही बच गया था ... गनीमत थी कि ये फासला दस क़दम का था।

सामने खड़ा था  …  उसकी आँखों में गिलहरियाँ फुदक रही थी  ... इसने उल्लू की तरह गोल गोल आँखें घुमाते हुए अच्छी तरह तसल्ली की कि जो सामने खड़ा था ,ये वो ही था  … क़द  .. हाँ  .. वही था , रंगत   ... उसी की थी  … आँखें  … बिलकुल वही ,और आवाज़ भी  … पर वो बोला कहाँ था ? एक अरसे बाद  देख रही थी उसे .. उसी  की उम्मीद में तो  ताबड़तोड़ चढ़ाई की थी दरवाज़े पर  … वो सामने भी था  … यक़ीन करना फिर भी मुश्किल हो रहा था  …  मुंह खोले खड़ी थी उसके अंदर आने की उम्मीद में। वो था कि अंदर आने का नाम ही नहीं ले रहा था  … इसके दिमाग की फिरकी चलनी शुरू हो चुकी थी 'इतनी आसानी से थोड़े ही आएगा ड्रामेबाज़।'  मच्छर की तरह  भिनभिनाई , 'अब क्या आरती उतारूँ  .. बांसुरी बजाऊं  .. कोयल बुलाऊँ   ..... '

वो इत्मीनान से खड़ा देख रहा था। इससे पहले कि वो जो अच्छा अच्छा सोच रही थी ,उसे उगल देती , वो बोल पड़ा  ..

'' मैं जो कहने आया हूँ , भूल जाऊं मैं  ,मुझे अंदर आने दे। मुंह बंद कर ले और दरवाज़ा खोल दे ''
 ''तू मुझे कन्फ़यूज़ करता है ''
 ''अब मैंने क्या किया ?''
 '' तू मुझे बताकर भी तो आ सकता था। ''
 ''मैं क्या बरात लेकर आ रहा था ?"
  ''लाया क्यों नहीं ?''
 ''तुझे मुझसे  शादी करनी है न ?''
 ''तो ?''
 '' कर।  ''
 ''पागल हुआ है ! ''
 "तो तूने झूठ बोला था।  ''
 ''वो तेरा पेशा है ''
 ''सच साबित कर ''
 ''तेरी तबियत ठीक है न ?''
 '' बात मत बदल ''
 ''बात बदल ... खुदा के वास्ते ''
 ''मैं तुझसे शादी करने आया हूँ ''
 ''तो कर ''
 ''तू चाहती थी न ?''
 ''तू नहीं चाहता ?''
 ''मैं तुझे चाहता हूँ ''

या खुदा !!!

 ''मैं जाऊं ?''
 ''तू मुझे कन्फ्यूज़ करता है  … चाहता क्या है ?''
 ''जो तू चाहती है ''
''अच्छा, ठीक है  … कर लेते हैं ''
''शादी कर रही है या अहसान '
 ''अहसान तो तेरा है ,सारे काम छोड़ कर भरी दुपहरी में मुझसे शादी करने आया है  ... बारात  भी नहीं लाया   किफायतशार कबूतर , जो तू न मिलता  यूँ ही उम्र गुज़र जानी थी मेरी तो ,घर के दालान में भैंस की तरह जुगाली  करते करते  ''
 '' बकवास मत कर ,वो कर जो रोज़ तोते की तरह रटती आई है अब तक ''
 ''शादी करवाएगा कौन ? लाया है किसी को साथ ?''
 ''बात तेरी मेरी है  .. तीसरे का क्या काम ?''
 ''यही प्रॉब्लम है तेरी , यही प्रॉब्लम है  .. तीसरे के नाम पर बिच्छू लड़ने लगते हैं तुझे ... तेरे साथ शादी कर के तो बच्चे भी नहीं आने के मेरी ज़िन्दगी में  ... किसी तीसरे के नाम पर ही तेरा रंग सफेद पीला नीला काला हो जाता है। "
  ''तू क्यों लाल हो रही है ?''
  '' तू जा यहां से ''
  ''तू मुकर रही है ''
  '' आज ही करेगा शादी ? ''
  ''अभी  . ''

अभी ..... अभी यहीं तो था  …  ये लहज़ा तो  उसका नहीं था।गिन गिन कर लफ्ज़ बोलने वाला  … हर  लफ्ज़ का हिसाब अपने डायरी में इन्दराज करने वाला  … लफ़्ज़ों से बादलों के फाहे रखने वाला  … इतना बेबाक  … कभी नहीं  ....  पर आया तो वो शर्तिया था। महज़ ख्याल नहीं था। हाँ ,आया था कई  साल पहले  …

(03-02-2015)





कुछ अफ़साने : लाजिमी हैं

कुछ अफ़साने : लाजिमी हैं (5 )
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 बहुत परेशान हाल में थी। शख्सियत के दोनों पहलू इस क़दर गुत्थम -गुत्था हो जाते कि उन्हें छुडाना मुश्किल हो जाता। नरम पहलू जितने समझौते कर लेता ,आक्रामक पहलू उतना ही हावी होने लगता। आक्रामक पहलू को हम दूसरा कहेंगे । ज़िन्दगी के बाकी मुद्दे तो अब पीछे छूट गए थे ,असली मुद्दा तो वो था। नरम पहलू तो उसके ऊपर उंगली   भी न उठाने देता ,दूसरा पंजे झाड कर उसके पीछे पड़ा रहता। मुसलसल टकराव के हालात बने रहते। दूसरे पहलू को भारी ऐतराज़ था नरम  पहलू की दरियादिली औए लचीलेपन पर। नरम पहलू एक न सुनता और अपनी ही धुन में रहता ,सब कुछ न्यौछावर करने को तैयार।

कुछ दिनों से आया बदलाव दूसरा भी महसूस कर रहा था। नरम गुमसुम रहने लगा था। एक स्याही सी फैली रहती उसके चेहरे पर। आँखें वीरान  … फैली फैली सी ….  जैसे कुछ खो गया हो उसका …  दूसरा बार बार पूछता कि  आखिर हुआ क्या है उसे ,जवाब में नरम उदास आँखों से देखता और मुंह फेर लेता।

नरम  कैसे बताता कि  जो उंगली लगातार उसको निशाने पर रखे है ,वो और किसी की नहीं ,उसकी है। दूसरा जानता था कि  इसके और उसके बीच भारी उठा-पटक चल रही थी। नरम ज्यादा बोल भी नहीं पाता  था।,चाहकर भी कुछ न कह पाता।  वो अलफ़ाज़ उसे इतने अश्लील लगे थे कि  अगर उसके हाथ में खंजर होता तो यकीनन वो उसकी और अपनी , दोनों की जान ले लेता।  दूसरा फैसले की स्थिति में आ चुका था ,उसे यह सब बर्दाश्त नहीं था। नरम की गिरती हालत तकलीफ पहुंचा रही थी। नरम भी धीरे धीरे दूसरे  के साथ सहमति की तरफ आ रहा था। दोनों के बीच का फासला कम हो रहा था। उसके अजीबो-गरीब बर्ताव ने दोनों को करीब ला दिया था।

 खुश थी अपने दो विरोधी पहलुओं में बढती नजदीकी  को देखकर …  दिल से  नरम का समर्थन नहीं करती थी …  पर उसके साथ सख्त होना भी गवारा नहीं कर सकती थी। जो चोट इसने खायी थी उसके हाथ ….उसे सहलाने के लिए दोनों एक होकर आगे बढ़ रहे थे इसकी  तरफ।

   वो मुस्करा रही थी। आंसू आँखों की पिछली दीवारों पर फिसल रहे थे।
   वो उसके बारे में बुरा नहीं सोचना चाहती थी। ऐसा करती तो उसका अपना फैसला गलत साबित होता।
   फैसला गलत नहीं था।
 
  उसे  दुआ दी -- आखिर प्यार का यही दस्तूर है।

  दोनों का हाथ थामे भंवर से बाहर आ गई।

मई ,2013

Monday 31 August 2015

कुछ अफ़साने : लाजिमी हैं

कुछ अफ़साने : लाजिमी हैं ---- (4)
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उसका चले जाना ,वो भी बिना कुछ कहे ,इसे अखर  तो बहुत रहा था ,पर इसने भी हक़ ज़माना छोड़ सा दिया था .संवाद भाप की तरह उड़ने लगा था आजकल .जब वो इससे झूठ बोलता या जब कभी उसकी बात का झूठ होना इसकी समझ में आता तो अन्दर बहुत सारा  मर जाती .इस बर्ताब  की कोई वजह भी ढूंढना नहीं चाहती थी ,बहुत पहले ही ऐलान  कर चुकी थी कि उससे प्यार  तो था इसे  ,पर भरोसा नहीं था उस पर .और ये भी कि  अगर इसके बस में होता तो उससे प्यार नहीं करती .प्यार कथित रासायनिक क्रिया  का परिणाम था ,जबकि भरोसा परखे हुए व्यवहार का . 
    इस क्रिया  पर इसका बस नहीं था और अपने व्यवहार पर उसका..

दिक्क़त सिर्फ इतनी ही नहीं थी ,जिस पर भरोसा नहीं करती थी,उसी पर सबसे ज्यादा ऐतबार था  - अपने दिल की हर बात कह लेती ,उसकी हर बात का यक़ीन न कर पाती .

सुबह उठी तो कूद कर ख्यालों में आ गया .नाराज़ सी थी ,माथे से बाल परे किये और ख्याल भी झटक दिया .
वो किताब लेकर बैठा ही था कि  उसने गर्दन में झटका महसूस किया ,समझते देर नहीं लगी उसे कि  मीलों दूर बैठी कहर बरसा रही थी .किताब रख दी ,अनमना सा बाहर आ गया .बिना बताए आ जाने का अफ़सोस होने लगा था उसे अब . खदेड़ कर छोड़ देती थी ,उस मरखनी गाय ने सींग  तो उसे कभी नहीं मारा  था . पुचकारते ही खिखियाती जंगली बिल्ली पालतू बकरी की तरह मिमियाती  हुई उसके पास आ जाती थी .यूँ ही अपने विचारों के ऊंट पर हिचकोले खाता बाहर बगीचे में पेड़ के नीचे आकर बैठ गया .

अक्सर वो इसे  समझाने की कोशिश करता ज़िन्दगी की क्षण-भंगुरता ,प्यार की विशालता के बारे में ,             आज्ञाकारी बच्चे की तरह गर्दन हिला -हिला कर सब समझने का दम भरती ,बिना सहमत हुए चुप-चाप सब सुनती रहती .अगले आधे घंटे तक गार्गी,मैत्रेयी की तरह बुद्धिमत्ता की बातें करती .पर बहुत देर तक अपनी ऊब छिपा नहीं पाती और चढ़ -दौड़ती उसके ऊपर और सारे जीवन-दर्शन की धुलाई कर देती .अब उसकी लाचारी हो जाती इसका समर्थन करना क्यों कि  अपनी बात से टस-से-मस नहीं होती .पर रहते दोनों ही असंतुष्ट .खुद नहीं जान पाते कि क्या था ,जो दोनों को बांधे था .इसे तो हर वक़्त रस्सा तुडाने की पड़ी रहती .पर वो अटल खूंटे की तरह इंच भर न हिलता .चीखती-चिल्लाती ,धमा-चौकड़ी मचाती ..हिल के न देता वो .खूंटे के आस-पास चक्कर लगाती रहती और थक कर वहीँ ढेर हो जाती .

मन के सुकून के लिए हज़ारों मील दूर आया था इस जंगल में .जैसे ही ध्यान-मुद्रा में बैठता ,प्रेतात्मा की तरह भटकती हुई आ जाती और उसके इर्द-गिर्द मंडराने लगती .कितनी बार,न जाने कितनी बार इच्छा के हवन में संकल्प की  आहुतियाँ डालता  ,पर शान्ति नहीं मिलती।

आज का दिन कुछ अलग था ,खामोश और संजीदा .माहौल में हलकी ठंडक थी ,सुहानी सी सुबह थी .पेड़ के नीचे बैठ कर एक अजीब सा सुकून मिला उसे .सिर्फ वो था और कुदरत। .उसने विश्व-कल्याण के लिए प्रार्थना की और ध्यानस्थ हो गया .आज ध्यान भटका नहीं .कोई याद नहीं आया .हल्का महसूस किया उसने .ऐसी आज़ादी महसूस हुई जैसे उम्र-क़ैद से रिहाई हुई हो .गुनगुनाता रहा न जाने कितनी देर ..

रात की ट्रेन से वापसी थी उसकी। एकाएक उतावला हो उठा वो। ट्रेन अपने समय पर पहुँच गई .

घर में मरघट सा सन्नाटा था . हर चीज़ करीने से रखी थी .

वो जंगली कहीं नहीं थी .

21-05-2013 


Tuesday 25 August 2015

कुछ अफ़साने : लाजिमी हैं ---- (3)
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इसके दसियों बार पूछने पर भी उसने बता कर नहीं दिया कि वो कल कहाँ गया था ..एक बार उसके मुंह से भी सुनना   चाहती थी, आखिरकार इसे भी रास्ता सूझ गया .
  '' मुझे पता है तू मुझे क्यों नहीं बता रहा .''

उसने सवालिया नज़रों से इसकी तरफ देखा , दुष्टता से हँस रही थी .

   '' पढ़ नहीं पाया न,  मील के पत्थर पर लिखा ,हिज्जे जोड़ कर पढने में तुझे जितना  वक़्त लगता ,उतने  वक़्फ़े में तो ओबामा अमरीका से हिन्दुस्तान पहुँच गया होता ,है न ? ''

   ''कभी-कभी मेरा मन करता है तेरी गर्दन मरोड़ दूं .''

   ''तो मरोड़ दे न ''

   ''ये कमबख्त प्यार ..''

   ''तो प्यार से मरोड़ दे न ''

    वो हंस दिया ,बहुत दिनों बाद हंसा था

   ''अगली बार  तू मेरे साथ चलना ,तू पढ़ लेना ''

    ''और तू क्या करेगा ?''

   ''मैं तुझे पढूंगा '

गालियों को न्योता दे दिया था उसने .इसने आँखें बड़ी की और पांच-छह गालियाँ दे डाली आँखों से। तकिया उठा कर मार दिया ,एक गाली और हुई। दो गालियाँ लात जमाने में हो गई ..अभी भी हल्का महसूस नहीं कर रही थी .बिफरी सी इधर-उधर घूमती रही . ..बाहर गई , अखबारों के ढेर में से एक ढेर उठाया , फनफनाती हुई आई ,गालियों की बौछार का इंतजाम करके लायी थी .. धूल भरा ढेर पटक दिया उसके ऊपर  ..

हालात का पूरा लुत्फ़ उठाता था वो भी। उसकी आँखें बता रही थी कि वो फिर किसी खुराफात की फ़िराक में था.

   ''तुनकती क्यों है बात-बात में ?''

   ''मुझे नहीं जाना तेरे साथ कहीं ''

   ''ठीक से पढूंगा ,हिज्जे मिलाकर ..हर्फ़ दर हर्फ़ ''

   ''तेरी फाइलें ,तेरी फोन कॉल्स ,तेरी मीटिंग्स ...''

  ''सिर्फ वो इबारत जो तेरी आँखों में लिखी है ''  बहुत संजीदा हो उठा  था वो .आँखों में नमी उतर आई .''चलेगी न मेरे साथ ,मैं अकेला रास्ता भूल जाता हूँ .''
   '' कौन सा रास्ता भूल जाता है तू ?
    '' मैं कल घाट गया था ,भटक गया ''
     ''शमशान घाट ?"
     ''तेरा दिमाग खराब है?''
     ''अब तू इतने घाट जाता है ,हिसाब भी नहीं रखा जाता मुझसे तो ……,मुझे लगा ये आखिरी घाट होगा  ''
      ''तू चलेगी न मेरे साथ ..... ?"

वो बोल रहा था ..ये चुपचाप बैठी एकटक देखे जा रही थी उसे .एकाएक उछल कर उसके ऊपर आई , ''ये तेरी कमीज में बटन कहाँ से आये ? कहाँ गया था ?'' गिरहबान थाम लिया उसका .इस बेरहमी से पकड़ कर खींचा कि बटन टूट कर दूर जा गिरे  .इसने जैसे राहत की सांस ली .आँखों में चमक लौट आई थी .

  ''क्या कह रहा था तू अभी ...मेरी आँखों में ...क्या ?''
 
   वो वहाँ था ही नहीं ..

   वो कहीं और था .

17-05-2013 

Monday 17 March 2014

रोंपा एक नया अफसाना







ज्यों हीं जड़ से उखड़ा पुराना

रोंपा एक नया अफसाना
क़ब्र वही थी
अब्र नया था
लहराता अलमस्त वहाँ
महक रहा था
लहक रहा था
नया नया
दफ़न हुआ था जो पुराना
कभी तो था वो नया नया
बुझ ही गया
रुझ ही गया
आखिर था वो बहुत पुराना
बहुत पुराना बहुत सयाना
नया रहेगा नया  नया क्या
नया होगा और नया  क्या
जैसे और पुराना  हुआ पुराना
बहुत पुराना बहुत सयाना

08 -12 -2013


Sunday 13 October 2013

औरत










हंसी के दायरे सिमट कर
खामोशी की एक सीधी  रेखा में
तब्दील हो चुके थे
लिबास से बाहर झांकता
एक ज़र्द चेहरा
अन्दर की ओर मुड़े दो हाथ
सिमटे पैरों के पंजे थे
कोशिश करने पर बमुश्किल
सुनी जा सकने वाली आवाज़ थी
घर और बाज़ार के बीच रास्ते में
दहशतें साथ चलने लगी थी
अजनबियों में दोस्त ढूँढने की कला
अब दोस्तों में अजनबी ढूँढने की
आदत बन गई थी
बंद दरवाजों की झिर्रियों से
आसमान के अन्दर आने की
गुस्ताखी नागवार थी
चौखट से एक कदम बाहर
और सदियों की दहशत
यही कमाई थी आज की
आजकल उसे
शिद्दत से महसूस होने लगा था
वो जो जिस्म लिए फिरती है
औरत का है