Translate

Wednesday 10 October 2012

टापों की आवाज़




आती है टापों की आवाज़ 
गुज़रते हैं घोड़ों और ऊंटों के कछावे  जब 
आज भी ...
आज भी 
दिल से गुज़रते कई काफिले
पल भर को सहम जाते हैं
सिंध  के समंदर पर लहराते 
उधर से इधर को आते हुए 
चीर दिया गया था बीचों-बीच से
हस्ती को 
बहता लहू 
घिसट  रहा था 
उधर से इधर ..

दौड़ती रेलगाड़ियों में 
परिचित चेहरों को ढूंढते 
बदहवास कुछ क़दम 
जो नहीं पड़े थे कभी ज़मीन पर 
बेसुध नंगे सिर
पगड़ियों की शान भूल 
बोगी-दर-बोगी 
तलाशते  उस बच्चे को 
छूट गया था जो उधर 
दसवीं के इम्तहान  के लिए 
शको-शुबह के मारे 
कोसते उस लम्हे को 
जिसमें सौंप आये थे 
अपनी अमानत 
और लाये थे साथ अपने 
हिफाज़त का वादा 
उधर  से आती हर गाड़ी
लाती इधर 
एक उम्मीद 
क्या तलवार देख पाएगी 
उससे जुडी उम्मीदें 
या काट डालेगी हर सपना
उधर ..


घंटों ज़िन्दगी ने मौत को अपने जिस्म पर
सरसराते देखा था 
मुर्दा जिस्मों के बीच एक ज़िन्दगी 
सांस ले रही थी सहमी सहमी 
पांच ट्रक आज भी जिंदा हैं 
स्मृति में
जो चले थे जिंदगियों को लेकर उधर से ..
खून की चादर ओढ़े 
अकेले रेखा पार करते 
इधर को आते 
अपराध बोध से ग्रसित 
सवालिया आँखों से आँखे चुराते 
मुहाजिर ने रख दिया था क़दम
इधर ...

सिंध की छाती पर 
लहराई एक कश्ती 
इधर या उधर ..की खींच-तान  में झूलती 
अंततः धकेली गई   इधर 
हिफाज़त का वादा निभाया गया था 
ज़मीन के टुकड़े  हुए 
वादों  और भरोसे के नहीं
इधर  और उधर ..

इधर की ज़मीन पर 
वो जवां क़दम 
नहीं भूल पा रहे थे उधर की कशिश 
वो पत्थर उछालना 
खजूर का टप्प से गिरना
दरख़्त-दर-दरख़्त  फुदकते 
वो बटेर वो बुलबुल
वो रेल का पुल 
वो केम्पबेलपुर का स्कूल और
 प्रार्थना   ..
'लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी '
माँ का हाथ छुड़ा कर 
समंदर सी सिंध में छलांग लगा देना 
देर तक गहराई नापना 
वो बेडमिन्टन कोर्ट और 
फुटबाल का मैदान 
वो ओवरकोट वो कैप 
वो  कोर्डरॉय वो लैदर शूज़ 
उधर ..

मलमल का कुरता
पाँव नंगे ...
ज़िन्दगी फिर भी आगे बढ़ना चाहती थी 
'कुली .....' 
और उस ज़हीन ने उठा लिया 
दौड़ कर सारा सामान 
'शाह जी ' और 'लालाजी ' छूट गए थे उधर 
पल्लेदारी का एक आना 
कहीं ज्यादा कीमती था इधर 
केम्प-दर- केम्प ढूँढना था 
टूटी और छूटी कड़ियों को
इधर ..

जो छूटा  था उधर 
घर-आँगन ,ऊँट-घोड़े ,
शानो-शौक़त  नहीं था 
जो छूटी थी 
पहचान थी वो 
खुद से काट कर फेंक दिया गया था उन्हें  
बिना तलवारों -खंजर  के 
उधर भी ..
इधर भी ..

(08-10-2012)


33 comments:

  1. रुला दिया आपने ...

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी भरत .. किसी के आंसुओं की ही कहानी है और उन्ही आंसुओं को बतौर स्याही इस्तेमाल किया है ..मेरी आँखों में भी वही आंसूं हैं ..तलाश है मुझे उन आँखों की ..जिनके आंसुओं की स्याही मैंने इस्तेमाल की है .और ज़रुरत है आपकी दुआओं की ..

      आभार दोस्त ..

      Delete
    2. इनमे मेरे आंसू भी शामिल हैं वंदना जी

      Delete
    3. यही वजह है भरत .शब्द एक रचना का रूप ले सके ..बहुत बहुत शुक्रिया दोस्त

      Delete
  2. बहुत मर्मस्पर्शी चित्र खींचा है आपने

    ReplyDelete
    Replies
    1. आभार ओंकार जी ..
      आप कविता के मर्म तक पहुंचे .. इससे बेहतर मेरे लिए और कुछ नहीं ..

      Delete
  3. शुक्रिया कुलदीप जी ..

    आपकी रचनाएं पढ़ी .. संवेदनशील लेखन है आपका

    ReplyDelete
  4. This comment has been removed by a blog administrator.

    ReplyDelete
  5. एक अनमोल टिप्पणी ...
    ------------------------

    Deepak Arora
    ----------------
    इधर और उधर में क्या छूटा क्या साथ आया .....इसमें हिसाब आड़े आता है | मुहब्बतें पीछे रह गयीं ,बेयकीनी से भरी एक नफरत तमाम उम्र के लिए साथ हो ली | सपनों में अब भी आते हैं वहां के कूचे ,और लौटने के लिए रिक्शा पकड़ता कोई बुजुर्ग ,रावलपिंडी के किसी मुहल्ले का पता बोल जाता है | रिक्शा वाला अटपटी नज़रों से देखता है .....तो याद आता है ,यह वह मोहल्ले थे,जहाँ घुटनों पर रेंगते बचपन ने ,कमरे की चौखट से सर टकरा सुना था ," ऊंट हो गया है ,पर देख कर चलना नहीं आया |" आह ! बेगानी हो गयी ज़मीन ,और कलमा पढ़ चुकी बेटियां ...अपनी नहीं तो किसी की हिफाज़त में हैं ,ऐसा सोच ,कोई पोपले मुहं वाली बुढ़िया रोटी है अब भी | नहीं ! यह कविता नहीं है ,नहीं है यह कविता वंदना जी !

    ReplyDelete
    Replies
    1. यह कविता नहीं है मेरे भाई ..

      Delete
  6. आभार उपासना जी ..
    आपने रचना को महसूस किया ..

    ReplyDelete
  7. बहुत अद्भुत अहसास...सुन्दर प्रस्तुति .पोस्ट दिल को छू गयी.......कितने खुबसूरत जज्बात डाल दिए हैं आपने..........बहुत खूब,बेह्तरीन अभिव्यक्ति .आपका ब्लॉग देखा मैने और नमन है आपको और बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजाया गया है लिखते रहिये और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

    ReplyDelete
    Replies
    1. अभिभूत हूँ मैं आपकी टिप्पणी से ..बहुत बहुत शुक्रिया, मदन मोहन जी आपकी आमद के लिए

      Delete
  8. रश्मि प्रभा जी ..तह-ए-दिल से शुक्रिया इस लिंक के लिए ....बहुत विस्मित किया है आपने मुझे ....वाकई इतनी अच्छी रचनाओं के बीच खुद को पाकर रोमांच हुआ .. ..आभार

    ReplyDelete
  9. बहुत मार्मिक वर्णन !
    मेरी माँ ने ये सब देखा है, वो गुज़री हैं...इस हैवानियत के दौर से ! उनकी बातें सुनकर आज भी रौंगटे खड़े हो जाते हैं ! आपने एक बार फिर वही सब महसूस करा दिया.......
    ~सादर !

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बेचैन करता है यह सब कभी कभी ... जैसे-तैसे साझा करने का मन बनाया तो पाया कि मेरी ही तरह वो सब इसको उतनी ही संजीदगी से महसूस करते हैं जिन्होंने मेरी ही तरह खुद इसे भोगा नहीं है , पर तकलीफ को वैसे ही महसूस किया है, जैसे इस सब से गुज़रे हों ....
      शुक्रिया अनीता जी ..

      Delete
  10. मार्मिक चित्रण ...

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपकी संवेदना ने मर्म को महसूस किया ..
      शुक्रिया वंदना जी ..

      Delete
  11. is dard ko khoobsoorat rachna kehna apne aap se baimani hogi...dard gehra ho to use kisi prabhavi abhivyakti ki jarurat nahi padti..apne aap vo apna prabhaav chhodta hai....aah nikalti hai is dard ko mehsoos kar ke aur apne buzurgon ki kahi purani baate yaad aa jati hain.

    ReplyDelete
    Replies
    1. यह सदायें दर्द तक पहुंची हैं अनामिका जी ... दर्द खुद को रचता है पूरी सृजनशीलता के साथ . .. दर्द का अपना सफ़र एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चला करता है ... बेशक, उस दर्द को कविता ,कहानी , नाटक किसी भी हद में बाँध दिया जाए ..दर्द फिर दर्द है ..अतीत से जुडा रहेगा ..

      आभार ...

      Delete
  12. शब्दों को ढोकर संवेदनाओं में रात गुज़ारी मैंने ...कलम सूखे पत्तों से सरसराते है ...न जाने ज़ख्म सूखेंगे कब ..पर दुआएँ ज़ारी है ...

    ReplyDelete
    Replies
    1. न जाने कब से ज़ख्म रिस रहे हैं .. और न जाने कब तक रिसते रहेंगे ... वक़्त का मरहम और दुआओं की दवा कब असर करेंगे , खुदा जाने .. पर दुआ करने वाले हाथों की ताक़त ज़िन्दगी को संभाले है ...शुक्रिया निरुपमा दुआयों में साथ रखने के लिए ..

      Delete
  13. शब्दों को ढोकर संवेदनाओं में रात गुज़ारी मैंने ...कलम सूखे पत्तों से सरसराते है ...न जाने ज़ख्म सूखेंगे कब ..पर दुआएँ ज़ारी है ...

    ReplyDelete
  14. बटबारे का दर्द पन्नों पर उकेर दिया आंसुओं की तपिश महसूस की मैंने आपकी रचना में
    आभार

    ReplyDelete
    Replies
    1. एक टीस है जो बार बार उठती है स्मृतियों के साथ ..
      शुक्रिया ममता जी ..

      Delete
  15. बेहद मार्मिक रचना...

    ReplyDelete
    Replies
    1. कुछ वाकये ज़हन पर चोट करते हैं और निशान छोड़ जाते हैं ...
      शुक्रिया रीना जी ..

      Delete
  16. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  17. बहुत बढिया दी..लेकिन पहले देखो मै भी यहाँ आ ही...गयी..:))

    ReplyDelete
    Replies
    1. दस्तक सुनाई दे रही थी मुझे न जाने कब से ...
      स्वागत है मेरे घर में , जो अब हमारा है ..

      Delete
    2. शुक्रिया दी..आपके घर में ,मन में छोटी सी जगह पा के मै बहुत खुश हूँ..:)

      Delete
  18. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  19. maen ne shayad pehle bhi likha hai, aap ki har kriti jaise meri apni lagti hai, lagta hai maen ne yeh sab jiya hai'''''bahut saara aashirwad aur pyar....k.l.grover

    ReplyDelete