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Sunday 13 October 2013

औरत










हंसी के दायरे सिमट कर
खामोशी की एक सीधी  रेखा में
तब्दील हो चुके थे
लिबास से बाहर झांकता
एक ज़र्द चेहरा
अन्दर की ओर मुड़े दो हाथ
सिमटे पैरों के पंजे थे
कोशिश करने पर बमुश्किल
सुनी जा सकने वाली आवाज़ थी
घर और बाज़ार के बीच रास्ते में
दहशतें साथ चलने लगी थी
अजनबियों में दोस्त ढूँढने की कला
अब दोस्तों में अजनबी ढूँढने की
आदत बन गई थी
बंद दरवाजों की झिर्रियों से
आसमान के अन्दर आने की
गुस्ताखी नागवार थी
चौखट से एक कदम बाहर
और सदियों की दहशत
यही कमाई थी आज की
आजकल उसे
शिद्दत से महसूस होने लगा था
वो जो जिस्म लिए फिरती है
औरत का है

 

11 comments:

  1. शुक्रिया डॉ शास्त्री ..
    एक अच्छा अनुभव होता है आपके ब्लॉग के ज़रिये जब अन्य रचनाकारों से रु-ब-रु होते हैं .
    हार्दिक आभार और शुभकामनाएं ....

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  2. वो जो जिस्म लिये फिरती है वह औरत का है............................ुसी औरत का जो माँ हे, बहन है, बेटी है, पत्नी है पर सब से पहले औरत है और उसका एक जिस्म है जिस पे मांस भक्षकों की नजर है।

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    1. जी, आशा जी ...इस जिस्म को ढोने वाले इसका मर्म बखूबी समझते हैं ..

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  3. कल 18/10/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद!

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    1. शुक्रिया यशवंत जी ..
      एक ऐसे मंच पर आना सुखद होगा मेरे लिए ..

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  4. Replies
    1. This comment has been removed by the author.

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    2. शुक्रिया कालीपद प्रसाद जी ...

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  5. बहुत सुंदर, सशक्त एवँ प्रभावी रचना ! शुभकामनायें स्वीकार करें वन्दना जी !

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    1. उत्साहवर्धक शब्दों के लिए शुक्रिया साधना जी ..

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  6. ek behtreen rachna ke liye badhai

    Please visit my site and share your views... Thanks

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