कभी मैं कह नहीं पायी
कभी मुझे कहने नहीं दिया
क्या कहती
यही न कि
थोडा जीने दो
जब भी बाहर झांकना चाहा
आँखों पर हाथ रख दिया
क्या देखती मैं
जो देखा था .. उसके बाद
पाँव बाहर रखना चाहा
दरवाजे पर सांकल थी
कहाँ जाती मैं
खुद को रौंदती वापिस आई
हर बार
पहुंची कहीं नहीं
न जी सकी
न मर सकी
देखती हूँ फटी फटी आँखों से
दुनिया
जो आधी भी मेरी नहीं है
सुन्दर रचना!
ReplyDeleteगणतन्त्रदिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!
आभार डॉ शास्त्री ..
Deleteआपको भी गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं
सादर ..
आभार दोस्त 'चर्चा मंच' में शामिल करने के लिए ..
ReplyDeleteसुखद अनुभूति है ..
बेहद मार्मिक अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteआभार दोस्त ..
Deleteबहुत सुन्दर मर्मस्पर्शी रचना ..
ReplyDeleteगणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं.
स्वागत और आभार कविता जी ..
Deleteआपको भी गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं
सादर ..
बस दुनिया है !!!!
ReplyDeleteऔर मै ??? शायद हूँ ...शायद नहीं !!!
झंकझोरती भावनाएँ उमड़ पड़ी हैं,रचना का रूप धरकर !!!