शब्द तैरते हैं उन्मुक्त से
आहलाद बन कभी सतह पर
अवसाद बन डूबते उतरते हैं कभी
कुछ ऊपर कुछ भीतर
बजते हैं जलतरंग से
फुंफकारते हैं अर्थ जब
सहमे जज़्बात की मछलियाँ
दम तोड़ने लगती हैं
ज़हर घुलने लगता है
विवेक के सागर में
नीला जो जीवन है
फैला है
ज़मीं से आसमां तक
यकायक काला होने लगता है
शब्दों पर व्याप्त
अर्थ की काली छाया
क़ैद कर उन्हें अपनी सीमा में
डुबो देना चाहती है
शब्द बेबस, बेजुबान ,अवाक ..
दिशाहीन
असमंजस के भंवर में जा फंसे हैं
उनका डूबना तय है
अर्थ ने विश्वासघात किया है .
बहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteसादर
ek behtreen abhivyakti
Deleteआपकी आमद और संजीदा टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार ..यशवंत जी
Deleteबहुत आभार भारती जी .. इस सराहना के लिए ..
अर्थ ने विश्वासघात किया है ...इतने गहरे अर्थ के बाद भी.. अत्यंत सुन्दर/गहराई लिए शब्द संयोजन.अद्भुत प्रतीकात्मकता...आहलाद बन कभी सतह पर
ReplyDeleteअवसाद बन डूबते उतरते हैं कभी/फुंफकारते हैं अर्थ जब/सहमे जज़्बात की मछलियाँ/ज़हर घुलने लगता है
विवेक के सागर में/नीला जो जीवन है/असमंजस के भंवर में जा फंसे हैं
उनका डूबना तय है .... आप इंसान के तौर पर तो हैं ही...एक रचनाकार के तौर पर भी परिपक्व हो रही हैं... है तो छोटा मुह बड़ी बात मगर आप जानती हैं..रोक नहीं पाता..
ऐसे ही गौरवान्वित करती रहिये !./\.
अर्थ का विश्वासघात और शब्दों का डूब जाना..वाह वाह ..बस वाह !पढ़ के एक अजीब सा सकून मिला..क्या लिखती हो आप ? बेहतरीन प्रस्तुति..बधाई और शुभकामनाये !
ReplyDeleteबेहतरीन.....
ReplyDeleteबहुत गहरे भाव
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