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Sunday 16 September 2012




शब्द तैरते हैं उन्मुक्त से
आहलाद बन कभी सतह पर
अवसाद बन डूबते उतरते हैं कभी
कुछ ऊपर कुछ भीतर
बजते हैं जलतरंग से
फुंफकारते  हैं अर्थ जब
सहमे जज़्बात की मछलियाँ
दम तोड़ने लगती हैं
ज़हर घुलने लगता है
विवेक के सागर में
नीला जो जीवन है
फैला है
ज़मीं  से आसमां तक
यकायक काला होने लगता है
शब्दों पर व्याप्त
अर्थ की काली छाया
क़ैद कर उन्हें अपनी सीमा में
डुबो देना चाहती है
शब्द बेबस, बेजुबान ,अवाक ..
दिशाहीन
असमंजस के भंवर में जा फंसे हैं
उनका डूबना तय है

अर्थ ने विश्वासघात किया है .

7 comments:

  1. बहुत ही बढ़िया


    सादर

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    1. आपकी आमद और संजीदा टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार ..यशवंत जी

      बहुत आभार भारती जी .. इस सराहना के लिए ..

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  2. अर्थ ने विश्वासघात किया है ...इतने गहरे अर्थ के बाद भी.. अत्यंत सुन्दर/गहराई लिए शब्द संयोजन.अद्भुत प्रतीकात्मकता...आहलाद बन कभी सतह पर
    अवसाद बन डूबते उतरते हैं कभी/फुंफकारते हैं अर्थ जब/सहमे जज़्बात की मछलियाँ/ज़हर घुलने लगता है
    विवेक के सागर में/नीला जो जीवन है/असमंजस के भंवर में जा फंसे हैं
    उनका डूबना तय है .... आप इंसान के तौर पर तो हैं ही...एक रचनाकार के तौर पर भी परिपक्व हो रही हैं... है तो छोटा मुह बड़ी बात मगर आप जानती हैं..रोक नहीं पाता..
    ऐसे ही गौरवान्वित करती रहिये !./\.

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  3. पिंकी शाह (Pinky Shah)17 September 2012 at 05:20

    अर्थ का विश्वासघात और शब्दों का डूब जाना..वाह वाह ..बस वाह !पढ़ के एक अजीब सा सकून मिला..क्या लिखती हो आप ? बेहतरीन प्रस्तुति..बधाई और शुभकामनाये !

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  4. बहुत गहरे भाव

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