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Saturday, 29 December 2012
Thursday, 22 November 2012
कहना है बहुत
कहना है बहुत
कहा कुछ नहीं
फिर भी
कहते रहो तुम
सिर्फ सुनूँ मैं
दुनिया है हसीं
वक़्त है नहीं
तो जाओ
उधर देखो तुम
तुम्हे देखूं मैं
बरसे बदलियाँ
नयन न कभी
बरसाएं जल
हरे रहो तुम
सूख जाऊं मैं
मंजिल हो गगन
क़दमों में ज़मीन
हौसला लिए
आगे बढ़ो तुम
पीछे रहूँ मैं
वादों को कहो
ज़हन में कभी
कुलबुलाएं न
भूल जाना तुम
याद रखूँ मैं
(Picture courtesy Google)
Tuesday, 6 November 2012
Wednesday, 31 October 2012
अन्दर दा शोर एहना वध गिया है
बाहर दीयां वाजां सुणाई नईं देंदीयाँ
ओह कोल वी हैं ते हैं दूर वी बहुत
उसदे आन दीयां आहटां सुणाई नईं देंदीयाँ
मरण नूं जी ते नईं करदा हुन मिरा
मैंनू आप्नियां सावां सुणाई नईं देंदीयाँ
ज़ख्म दे रई है ज़द्दो-ज़हद आपणे नाल
क्यूं किसे नूं कुरलाहटाँ सुणाई नईं देंदीयाँ
ओ इश्क है मेरा, ओ ही रब्ब है मेरा
क्यूं मेरियाँ फ़रियादां सुणाई नईं देंदीयाँ
Wednesday, 10 October 2012
टापों की आवाज़
आती है टापों की आवाज़
गुज़रते हैं घोड़ों और ऊंटों के कछावे जब
आज भी ...
आज भी
दिल से गुज़रते कई काफिले
पल भर को सहम जाते हैं
सिंध के समंदर पर लहराते
पल भर को सहम जाते हैं
सिंध के समंदर पर लहराते
उधर से इधर को आते हुए
चीर दिया गया था बीचों-बीच से
हस्ती को
हस्ती को
बहता लहू
घिसट रहा था
उधर से इधर ..
दौड़ती रेलगाड़ियों में
परिचित चेहरों को ढूंढते
बदहवास कुछ क़दम
जो नहीं पड़े थे कभी ज़मीन पर
बेसुध नंगे सिर
पगड़ियों की शान भूल
बोगी-दर-बोगी
तलाशते उस बच्चे को
छूट गया था जो उधर
दसवीं के इम्तहान के लिए
शको-शुबह के मारे
कोसते उस लम्हे को
जिसमें सौंप आये थे
अपनी अमानत
और लाये थे साथ अपने
हिफाज़त का वादा
उधर से आती हर गाड़ी
लाती इधर
लाती इधर
एक उम्मीद
क्या तलवार देख पाएगी
उससे जुडी उम्मीदें
या काट डालेगी हर सपना
उधर ..
उधर ..
घंटों ज़िन्दगी ने मौत को अपने जिस्म पर
सरसराते देखा था
मुर्दा जिस्मों के बीच एक ज़िन्दगी
सांस ले रही थी सहमी सहमी
पांच ट्रक आज भी जिंदा हैं
स्मृति में
जो चले थे जिंदगियों को लेकर उधर से ..
खून की चादर ओढ़े
अकेले रेखा पार करते
इधर को आते
अपराध बोध से ग्रसित
सवालिया आँखों से आँखे चुराते
मुहाजिर ने रख दिया था क़दम
इधर ...
मुहाजिर ने रख दिया था क़दम
इधर ...
सिंध की छाती पर
लहराई एक कश्ती
इधर या उधर ..की खींच-तान में झूलती
अंततः धकेली गई इधर
हिफाज़त का वादा निभाया गया था
ज़मीन के टुकड़े हुए
वादों और भरोसे के नहीं
इधर और उधर ..
इधर और उधर ..
इधर की ज़मीन पर
वो जवां क़दम
नहीं भूल पा रहे थे उधर की कशिश
वो पत्थर उछालना
खजूर का टप्प से गिरना
दरख़्त-दर-दरख़्त फुदकते
दरख़्त-दर-दरख़्त फुदकते
वो बटेर वो बुलबुल
वो रेल का पुल
वो केम्पबेलपुर का स्कूल और
प्रार्थना ..
'लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी '
प्रार्थना ..
'लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी '
माँ का हाथ छुड़ा कर
समंदर सी सिंध में छलांग लगा देना
देर तक गहराई नापना
वो बेडमिन्टन कोर्ट और
फुटबाल का मैदान
वो ओवरकोट वो कैप
वो कोर्डरॉय वो लैदर शूज़
उधर ..
मलमल का कुरता
पाँव नंगे ...
पाँव नंगे ...
ज़िन्दगी फिर भी आगे बढ़ना चाहती थी
'कुली .....'
और उस ज़हीन ने उठा लिया
दौड़ कर सारा सामान
'शाह जी ' और 'लालाजी ' छूट गए थे उधर
पल्लेदारी का एक आना
कहीं ज्यादा कीमती था इधर
केम्प-दर- केम्प ढूँढना था
टूटी और छूटी कड़ियों को
इधर ..
इधर ..
जो छूटा था उधर
घर-आँगन ,ऊँट-घोड़े ,
शानो-शौक़त नहीं था
शानो-शौक़त नहीं था
जो छूटी थी
पहचान थी वो
खुद से काट कर फेंक दिया गया था उन्हें
बिना तलवारों -खंजर के
उधर भी ..
इधर भी ..
खुद से काट कर फेंक दिया गया था उन्हें
बिना तलवारों -खंजर के
उधर भी ..
इधर भी ..
(08-10-2012)
Thursday, 4 October 2012
Friday, 28 September 2012
तुम्हारे लिए
वो जो एक कविता पहले लिखी थी ना
वो तुम्हारे लिए थी
उससे पहले की दो
वो भी तुम्हारे लिए थी
एक मैंने बहुत उदासी में लिखी थी
ख़ुशी में अमूमन मैंने कभी नहीं लिखा था
जिस दिन मैंने बहुत ख़ुशी महसूस की
तुम्हारे लिए ही लिखी
नींद नहीं आई
बहुत सोचा किया
वो जो एक और लिखी
तुम्हारे लिए ही ..
एक मुराद पूरी हुई
बहुत याद आई
एक और लिख डाली
नाराजगी में जब पांच दिन बात नहीं की थी
जितने दिन ,
उतनी ही और लिखी
बहुत गुस्सा आया यक -ब-यक
जिस दिन
दो की चिन्दियाँ उड़ाई
तीन की धज्जियां
ज़ख्म बह निकला
एक और लिखी गई
जो बह गई उस बहाव में
बहते -बिखरते को समेटना आसान न था
अब तक
बह रहा है सब
कह रहा है कुछ
Tuesday, 18 September 2012
कुछ मेरा सा
वो कुछ कुछ मेरा सा है
कुछ अपना सा
तमाम नफरतें नहीं खींच पायी
एक लकीर मेरे दिल पर
वो खारे पहाड़
वो लदे हुए ऊंटों की कतार
इत्र के दीवाने
मेले के ख्वाहिशमंद,रौबीले
काबिल और हुनरमंद
पतलून में सलवट को लेकर
फिक्रमंद राजकंवर को
इकलौती कुर्सी पर सहेजे
मल्लाह की पतवार के इशारों पर
दरिया के सीने पर सवार
वो कश्तियाँ
वो ऊंचे द्वार
दूर दूर तक फैला
विशाल घर-आँगन
कतार-बद्ध कर-बद्ध हुजूम
वो सलोनी सी
पढ़ती थी ,गुनती थी
धीमा सा हंसती और सब कह देती
अपनी ही दुनिया में मगन
मुस्कान से जगमगा देती सब
जो नहीं कर पाता था
माँ के जिस्म पर लदा
एक किलो सोना भी
और उस दिन
सकुचा गई अन्दर तक
जब राजकंवर ने पूछा ,
'ऐ लड़की ,तुझे उर्दू आती है ?
उसे उर्दू आती थी
और फिर पढ़ते रहे
दोनों ताउम्र
किताबें, रिसालें
और ज़िन्दगी ..
साथ साथ
एक अतृप्त सी तलाश ले जाती है
अंधेरों से गुज़रती
जड़ों की ओर
लौटती है नाकाम
बंद आँखों में बनती-बिगडती
एक तस्वीर
खुद की पहचान खोजती
सहलाती है
रूह पर लिपटी उदासी को
दिखाती है हक़ीकी आईना
कुछ साए हैं
फ़ैल जाते हैं शाम ढले
एक छोर से दूसरे छोर तक
ढक लेते हैं स्मृतियों को
सायों के भयावह नर्तन में
धब्बे हैं खून के
चिपके हैं आत्मा पर
एक पूरा ख़ूनी इतिहास लिखे जाने के बाद
बहता खून
दरक चुके रिश्ते
तमाम दांव-पेंच
नहीं खींच पाए मेरे दिल पर
एक लकीर
जो गिरी थी गाज की तरह सरहद पर
क्यों कि दूर कहीं है
जिस्म से कटा एक हिस्सा
जिला मियाँ वाली
और है
एक 'काला बाग़'
एक 'माड़ी'
वो ठिकाना था
सपनों का
मेरे अपनों का
Sunday, 16 September 2012
शब्द तैरते हैं उन्मुक्त से
आहलाद बन कभी सतह पर
अवसाद बन डूबते उतरते हैं कभी
कुछ ऊपर कुछ भीतर
बजते हैं जलतरंग से
फुंफकारते हैं अर्थ जब
सहमे जज़्बात की मछलियाँ
दम तोड़ने लगती हैं
ज़हर घुलने लगता है
विवेक के सागर में
नीला जो जीवन है
फैला है
ज़मीं से आसमां तक
यकायक काला होने लगता है
शब्दों पर व्याप्त
अर्थ की काली छाया
क़ैद कर उन्हें अपनी सीमा में
डुबो देना चाहती है
शब्द बेबस, बेजुबान ,अवाक ..
दिशाहीन
असमंजस के भंवर में जा फंसे हैं
उनका डूबना तय है
अर्थ ने विश्वासघात किया है .
Wednesday, 29 August 2012
उबासी ने अंगडाई लेते हुए कहा
उबासी ने अंगडाई लेते हुए कहा
कितने दिन हुए तुम्हे
आँख बंद किये
अपने दिल की सुने
कितने अच्छे थे वो दिन
जब शब्दों की दुनाली से
ख्यालों को ज़मीनोंदाज़ कर दिया जाता
अँधेरे मौसमो
गहराते सायों को
नेस्तनाबूद किया जाता
तुम्हारे आत्म-समर्पण ने
अलसा दिया है सपनों को
अब ढूंढ रहे हैं
आँखों की छाँव
भटक रही हैं आँख
भटक रहे हैं सपने
ठहरी आँख को नहीं है कोई इंतज़ार
न देखती हैं बाहर
न देखती हैं भीतर
अलसाए से लम्हे
वक़्त से नज़रें चुराते
दामन से लिपटे
मासूम बच्चे की मानिंद बेखबर
बैठे हैं देहरी पर
तकते हैं राह
कि बजेगा घड़ियाल
और चल देंगे आगे
कुछ भी तो नहीं होता
रुक गया है सब
सुनो !
पलक को झपकने दो
आँख को सोने दो
सपनों को आने दो
दुनिया को चलने दो
फर्क पड़ता है
तुम्हारे होने,
न होने से
Saturday, 25 August 2012
मेरे वालिद की सुनहरी डायरी
मेरे वजूद का एक हिस्सा
सोया है किसी कोने में
खुदाया महफूज़ रख उसे
कि लम्हे हैं कुछ हसीनतर क़ैद उसमें
बचपन है जवानी है
ठिठोली है ठहाके हैं
कुछ नर्म अहसास भी हैं ..
और
कुछ अनछुए
अनजाने पल
किसी की ज़िन्दगी के
जो कर देते
मुक़म्मल एक शख्सियत को
काश !
मिल जाता वो दस्तावेज़
लिखा जाता था जो
खामोशी में अक्सर
फिक्र थी जिसमे ,कशमकश थी ,
हौसले थे ,कोशिशें थी ,
ज़द्दो-ज़हद थी ..और थी
बुलंदी पर पहुँचने की पूरी दास्ताँ ..
पर
मुझे तलाश है
कुछ रूमानी लम्हों की
और
कुछ अपने साथ जिए वक़्त की
मुझे तलाश है अपनी रूह की
मेरे खुदा
दे दे मुझे
मेरे वालिद की
वो
सफ़ेद -सुनहरी डायरी !
Thursday, 9 August 2012
शुक्र है ..
शुक्र है
मुझे कोई गफलत
कोई गुमां न था कि
मैं दुनिया बदल डालूंगी
शुक्र है
मुझे पता था कि
मैं वह हूँ
इंसान के तबके में
जिसे औरत जैसा कुछ कहा जाता है
शुक्र है
मैंने कभी कोई कोशिश नहीं की
नेता बनने की
क्रान्ति लाने की
यह सोचने की कि
सोचने से सपने साकार होते हैं
शुक्र है
इससे पहले ही
मैं अनचाहे पत्नी
और
अनजाने ही
मां बना दी गई
शुक्र है ..
Friday, 3 August 2012
शिकायत नहीं
रोना भी नहीं
अतीत अब रुलाता नहीं
खामोशी को गहराता है
अपने साथ जीना
अब आखिरी विकल्प है जैसे
हँसना अब सार्वजनिक विषय है
रेलगाड़ी रूकती है
हंसी का कोई हाल्ट भी नहीं
क्रंदन एक्सप्रेस ट्रेन सा
सारे फासलों को तय करता
उड़ता जाता है
गंतव्य को पहचानते हुए भी
अजनबी सा
रास्ते की हर चीज़ से अनजाना सा
नहीं देखता
क्या छूटा क्या साथ रहा
जैसे खुद से भाग रहा है
Monday, 23 July 2012
कौन था जो
------------- वो -------------------
------------------------------------
कौन था जो
अनकही सुनता था
सपने बुनता था
अपने चुनता था
क्या था जो
घुटन में सहलाता था
खुली आँख को सुलाता था
दर्द को बहलाता था
कैसा था जो
सपने सजाता था
अपने बनाता था
रूठे मनाता था
कोई था जो
बेचैन कुलबुलाता था
जबरन मुस्कुराता था
पास बुलाता था
------------------------------------
कौन था जो
अनकही सुनता था
सपने बुनता था
अपने चुनता था
क्या था जो
घुटन में सहलाता था
खुली आँख को सुलाता था
दर्द को बहलाता था
कैसा था जो
सपने सजाता था
अपने बनाता था
रूठे मनाता था
कोई था जो
बेचैन कुलबुलाता था
जबरन मुस्कुराता था
पास बुलाता था
Sunday, 17 June 2012
Wednesday, 13 June 2012
वे सुण
वे
सुण
बड़ा रिस्की ज्या हो गिया ऐ
सारा मामला
हाल माड़ा ऐ मिरा
जित्थे वेखां
तूं दिसदा एं
गड्डी दे ड्रेवर विच
होटल दे बैरे विच
दफ्तर दे चपरासी विच
वे
सुण
एस तरां चल नी होणी
जे आणा है ते आ फेर
कदे लफ्जां दा सौदागर बण के
उडीक रईं आं
कदे पढ़ेंगा ते कहेंगा फखर नाल
जिस्म औरत दा
नीयत इंसान दी ते ज़हन कुदरत दा
लेके जम्मी सी
हक दे नां ते ज़ुल्म नई कीत्ता
फ़र्ज़ दे नां ते ज़ुल्म सिहा नई
वे
सुण
ना कवीं कदे जिस्म मैनू
ना कवीं कदे हुस्न
ना रुबाई ना ग़ज़ल कवीं
बण जावांगी कुज वी तेरी खातिर
वे
सुण
तेरे वजूद नू अपना मनया
इश्क़ लई इश्क़ करना सिखया
घुटदे साहां नाल
क़ुबूल करना सिखया
ते पत्थर हिक्क रखना सिखया
वे
सुण
तू मैंनू मगरूर कैन्ना एं
मैं तैंनू इश्क़ कैंनी आं
Thursday, 7 June 2012
एक औरत
आँखें बंद होती और
दुनिया के दरवाज़े खुल जाते
आम बहुत ख़ास हो जाता
अलफ़ाज़ सजे-धजे ,नए -नए
खूबसूरत लिबास में
ज़हन पर दस्तक देते
वो अधमुंदी आँखों से पकडती ,
दिल के करीब लाती
महसूस करती
साँसें रफ़्तार पकडती
ज़हन जज़्बात बेकाबू हो जाते
आँखें खुल जाती
तब
न अह्सास न अलफ़ाज़
एक औरत
बिस्तर पर दम तोड़ रही होती ..
Saturday, 2 June 2012
लाहौल विला !
लाहौल विला !
वो औरत थी !
गलियारे से गुज़रती
सब अवाक रह जाते
बला की खूबसूरत ,ठहरी ठहरी सी
इस वक़्त से पहले भी एक वक़्त था
वो सिर्फ ख़ूबसूरती थी ,
नज़ाक़त थी ,मासूमियत थी .
वक़्त का कहर ..
चेहरा बदल गया
दाग नमूदार होने लगे
जिस्म ढलने लगा
मासूमियत खो गई
या ,खुद भी खो सी गई ..
क्या हुआ उसे ....
वो औरत से इंसान हो रही थी
नहीं जाना सजना -संवरना
जाना तो
बिखरना -संभलना -बिखरना
जाना तो
लम्हा लम्हा जीना
लम्हा लम्हा मरना
उसके और उसके वजूद की लड़ाई
जानलेवा थी
मर रही थी
जैसे जी रही थी
गिर रही थी
जैसे उठ रही थी
वो औरत से इंसान हो रही थी
अपना वजूद महसूस कर रही थी
ज़हन में हो रहे धमाके सुन रही थी
धमाके दहला रहे थे उसे
कैसे कहती
उसे कुछ हुआ था
कैसे क़ुबूल करती ..
वो गुनहगार थी
लाहौल विला !
वो औरत थी ?
या लानत थी ?
वो लानत नहीं करिश्मा थी
जीना चाहती थी
जीना जानती थी
रास्ता बना रही थी
रास्ता बन रहा था ..
(Picture from web)
Monday, 28 May 2012
रिश्तियां दी अग
ऐ भूरीयाँ अक्खां
नई पह्चान्दीयां कुझ वी
ओ रूह है
जेह्ड़ी तेरे तक पहुंचदी है
जेह्ड़ी तेरे तक पहुंचदी है
गुलाबी रूहां दा
ए रिश्ता आसमानी है
बदनीयत इल्जामाँ दा भार बहुत है
ऐ हरी -भरी धरती
लानतां सह-सह के
लानतां सह-सह के
ज़र्द पै गई सी जो
रिश्तियां दी अग ने
साड़ के
स्याह कर दित्ता है एहनू
किसे रिश्ते दा बोझ
नई सह सकदी हुन
ऐ धरती ..
Saturday, 26 May 2012
वो क्या है
कह रहा है जब से तू
सुन रही हूँ तब से मैं
वो क्या है
आँख में भरा - भरा
दिल में खाली खाली सा
वो क्या है
ढूँढता .तलाशता
खोया खोया ,खोया सा
वो क्या है
आया तो गया नहीं
ठहरा तो फिसल गया
वो क्या हैबरसों में है फैला -फैला
लम्हों में सिमटता सा
वो क्या है
जिस्म को छुआ नहीं
रूह को भिगो गया
वो क्या है
कब ,कहाँ ,कैसे ,किधर
भीड़ में सवालों की
वो क्या है
भीतर भीतर घुट रहा
हुआ कभी नमू नहीं
वो क्या है
Thursday, 24 May 2012
Monday, 21 May 2012
Saturday, 19 May 2012
ज़िन्दगी इतनी है कि
हम जो उठे ,उठते गए और उठ ही गए ..
ज़िन्दगी इतनी है
कि हम जो चले .चलते रहे ,बस चले ही चले ..
कि हम जो चले .चलते रहे ,बस चले ही चले ..
ज़िन्दगी इतनी है
कि बैठ गए ,बैठे ही रहे और बैठ गए ..
कि बैठ गए ,बैठे ही रहे और बैठ गए ..
ज़िन्दगी इतनी है
कि ढलती रही ,ढलती गई और ढल सी गई ..
कि ढलती रही ,ढलती गई और ढल सी गई ..
ज़िन्दगी इतनी है
कि सोने लगी,सो सी गई और सो ही गयी ..
कि सोने लगी,सो सी गई और सो ही गयी ..
ज़िन्दगी कितनी है
कि उठ भी गई ,चल भी पड़ी ,
बैठ गई ,ढल भी गई
और सो भी गई ,
पर रुकी नहीं
कि उठ भी गई ,चल भी पड़ी ,
बैठ गई ,ढल भी गई
और सो भी गई ,
पर रुकी नहीं
Wednesday, 16 May 2012
Monday, 14 May 2012
आँखों के पार
आँखों के पार
आत्मा में घुला घुला सा
फैला था दूर -दूर तक
नीला आकाश
चमकता सूरज
छन छन पसरी धूप
सांझ को सुलगा कर
शांत होती जा रही थी अब
बहती शाम के सांवले सलोने गालों पर
सूरज के छोड़े ज़ख्मों पर
बादल के फाहे रखता दिन भी
खो रहा था शाम की मदहोश आँखों में
जुगनुओं के रेले
आसमान में तारों के मेले
चाँद की मनमानी और
लुका-छिपी का दौर
रात के लहलहाते आँचल पर
चांदनी की कसीदाकारी
हसीन मंज़र था.............
आह !
एक कराह से तन्द्रा टूटी
यूँ लगा
आसमान में तारा टूटा कोई
भूल गया था
यूँ स्टेशन की सीड़ियों पर बैठने की मनाही थी
पीठ सहलाता
पीठ सहलाता
अपने ज़ख्म के लिए
बादल का फाहा तलाशता
सोच रहा था ...
काश !
मिल जाता कहीं से
रात के आँचल का
थोडा सा टुकड़ा
तो ढांप लेता
ज़ख्म अपना
डंडा मारा भी तो पूरी ताक़त से था
छोड़ गया था रूह पर निशान
आह !
Friday, 11 May 2012
तुम्हें पता है न ..
तुम्हें पता है न ..
मुझे तुमसे प्यार है
जी करता है
एक दिन के लिए ..बन जाऊं
जो माँ कहती थी
बच्ची ..
तुम्हें बताना है ..
मुझे बहुत प्यार है
कल -कल करती नदी के धारों से
तितलियों से
फूलों से
खुशबुओं से
तुमसे भी उठती है एक खुशबू
तुम्हें पता है न ..
मेरे पास पंख नहीं हैं
फिर भी उड़ रही हूँ
हवाओं के साथ
इन्ही पंछियों ..तितलियों की तरह
वादी के फूलों को छूती
कल -कल करती नदी के धारों को छूती
पर मैं तुम्हें छूना चाहती हूँ
तुम्हें पता है न ..
डरती हूँ खुद से
अपने जिद्दी मन से
कहीं तुम्हारी साँसों के साथ
ह्रदय में उतर गई
तो फिर
विस्थापन गवारा नहीं होगा मुझे
तुम्हें पता है न ..
मैं बताना चाहती हूँ
तुम्हें पाने या खोने की
ज़द्दो -ज़हद नहीं है यह
यह सफ़र है मेरा
खुद को खो देने
और फिर से पा लेने का
तुम्हें रुकना होगा
मेरे पहुँचने तक
वरना फिर खो जाउंगी मैं
बच्ची हूँ
Thursday, 10 May 2012
तुम्हारे आने से पहले
तय था तुम्हारा जाना
वक़्त मुक़र्रर था
तुम आये सकुचाते ,रुके ,संवरे और निखर गए
मेरी आँखों के आईने में
अपना अक्स निहारा
गरूर झाँक रहा था तुम्हारी आँखों से
आखिर सबसे हसीन मौसम का
खिताब जो मिला था तुम्हे
तुम्हारा खुद पर यूँ इतराना
अच्छा लगा मुझे
हर मौसम मेरा ही तो हिस्सा है
वो पतझड़ भी ,जो अब आया है
वो भी मेरा है
तुम भी तो मेरे थे .
तुम बदल गए
क्यों कि तुम्हे बदलना था
मैं जानती थी
बदलाव बनाया भी तो मैंने ही था
तुम जाओ
कि
जाते मौसम का
सोग नहीं मनाती मैं
विलाप नहीं करती
कभी कभी बरस जाती हूँ
कि तपते दिल को राहत मिले
बह जाती हूँ कि ज़ख्म धुलें
उठती हूँ गुबार बन के
कि न देखूं तुमको जाता
प्रकृति होने की यह सजा
खुद तय की है मैंने
अपने लिए
Wednesday, 9 May 2012
एक खूबसूरत रिश्ता
न तुम संभाल पाए
और न मैं
लडखडाता
गिर गिर के उठता
उठ उठ के गिरता
चलता रहा ...
सहारे तलाशता ..
सांसों के लिए फडफडाता
विश्वास -अविश्वास के बीच झूलता
आरोप -प्रत्यारोप के बीच सहमता
अहम् और समर्पण के संघर्ष में
असुरक्षित ,कमज़ोर ,कांपता
अपनी मौत के इंतज़ार में
पथराई आँख से राह निहारता ...
सिहरता ...
पल यही आखिरी तो नहीं ?
Monday, 7 May 2012
आ गयी सोन चिरैया
जी आ गयी हूँ मैं ........ एक सोन चिरैया
कौन हूँ मैं जानती नहीं
क्यूं हूँ ........क्यूंकि सब सीखा हुआ गलत साबित हुआ
और जो नहीं सीखा
वोह अब क्या सीखना.....................
इसीलिए एक थी सोन चिरैया...............
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