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Monday 13 May 2013

उफ़ !




उफ़ !
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कह भी दो न चुप रहो
कि सहना अब मुहाल है

मैं रहूँ कि न रहूँ
कुछ कहूं कि  न कहूं
तुम हो तो हर सवाल है

जो रुक गई तो रुक गई
गर चल पड़ी तो चल  पड़ी
ये सांस भी कमाल है

आह कहूँ  कि  वाह कहूँ
आबाद कि  तबाह कहूँ
ये जीस्त भी  बवाल है

07 -05 -2013


Tuesday 7 May 2013

अंत मालूम है।









कहानियों में क्या होता है ,मुझे मालूम है ..जैसे मुझे कहानी का अंत मालूम है। शुरू कहाँ से होती है कहानी ,ये तो किसी को भी नहीं पता होता। बीच की कहानी आपकी ,मेरी ,सबकी होती है ,ये कहानी मेरी तो नहीं है ,आपकी हो सकती है ,अगर आपकी नहीं है तो शर्तिया ये उसी की है ,वो किरदार  ही ऐसा है ,हकीकी कम,अफसानों से निकला ज्यादा लगता है, .हँसता है तो अहसान करता है ,रोता है तो शायरी करता है ,खाना खाता है तो अध्यात्म और दर्शन की तरकारी के साथ ....हाँ ,जब गालियाँ देता है तो बहुत अपना सा लगता है .सीधी दिल से आती गाली जुबान पर ऐसे पसर जाती है ,जैसे दिन भर का काम निपटा कर मालकिन की गैर-हाजिरी     में उनके डबल बेड पर पसरी कामवाली --अंजाम की परवाह किये बगैर ..

पता नहीं,कहाँ से आया था ...पर हक यूँ जमाता सबके ऊपर ...जैसे सब उसकी जेब में धरे कंचे हों ,जिन्हें मर्ज़ी से ठोकता ,बजाता ,खेलता और उछाल देता ..ढूँढने पर कुछ अलग सा नहीं मिलता था उसकी शख्सियत में . लोग दो ही तरह की राय रखते थे कि बहुत  नेकदिल इंसान है और दूसरी राय यह कि बहुत दिलफेंक इंसान है ..इस बात से किसी को नाइत्तफाकी नहीं थी कि दिल था उसके पास , संशय दिल की फितरत को लेकर था कि उसमे 'नेकी' ज्यादा थी या 'फेंकी '..

लिहाज़ा खुद कभी खुलासा नहीं किया था उसने इस बावत -जब वो आया था इस इलाके में , कुछ् कहानियां साथ आई थी उसके ...वही पुरानी ...अपनों से धोखा ,प्यार में धोखा ...एक कहानी उसके चेहरे पर भी लिखी हुई थी ,जो शायद ही किसी ने पढने की कोशिश की हो ,दरअसल पढने की आदत अब रही भी कहाँ थी . अफसानों से निकले पात्र अमूमन खूबसूरत ,अच्छी कद-काठी के,संगीत-कला के पारखी ,प्रेम से लबरेज़ होते हैं ..पर इस पात्र में एक खासियत और भी है -यह सुबह काम पर जाता है और शाम को घर आता है ,यह शाम को बैठ कर न तो चैन की और न ही कोई और बंसी बजाता है .अपना दर्द अपडेट करता है ...और ख़ुशी भी .अलबत्ता ज़िन्दगी जीने के ढंग को लेकर इसकी राय बहुत स्पष्ट नहीं है ,पर मौत को जश्न मानता है ..अब ये नहीं पता,किसकी मौत की बात करता है .

इसी कहानी में इसी पात्र के आस-पास एक और विचित्र पात्र है .कहानी की मांग के हिसाब से इसे स्त्री पात्र होना चाहिए ..इत्तेफ़ाक़न यह स्त्री पात्र ही है ,खुद को कभी कुदरत के ढाले सांचे में पाकर खुश होती नहीं देखी  गई ,समाज को मुंह बिचकाती है ..पूछो ..तो मर्द की ज़िन्दगी भी नहीं चाहती ...अपनी मर्ज़ी से लहराते  बाल ,कभी जूडा ,गहरी लिपस्टिक ,काजल ,साडी ,झुमके ,पायल जैसे सारे आडम्बर करती देखी जाती  है .अपनी मर्ज़ी के नाम पर इसे अपनी मर्ज़ी से ही जीना होता है ,मर्ज़ी से कपडे पहनना या न पहनना ,मर्ज़ी से हँसना और हंसी का सुर-ताल तय करना ..रोना भी मर्ज़ी से ही ...यूँ ही रोते -रोते अपना दर्द अपडेट  करते टकरा गई उससे ,,यहाँ इसकी मर्ज़ी शामिल नहीं थी .कहानी बननी थी,बन गई .....दुनिया-जहान .ज्ञान-विज्ञान ,धर्म-दर्शन ,साहित्य ,इतिहास,भूगोल से आ पहुंची वहीँ ....अब प्रेम का गणित ,नया नया हिसाब-किताब ...दोनों ही चकरा गए ..उसका तो पता नहीं,पर इसे प्यार नहीं करना था ,पहले भी अपनी मर्ज़ी से ऐसा ही विकल्प  चुना था इसने ..प्यार के नाम पर ही बौखला  जाती ...प्रेम की गलियों से  रोज़ गुज़रते आखिर इसने कुछ दिन वहीँ ठहरने का फैसला किया .नया विषय था ,प्रशिक्षण ज़रूरी था .अब हर दिन की चुनौतियों ने इसकी हालत ऐसी कर दी कि  जैसे मोर्चे पर दनादन गोलियों के बीच टुकड़ी से बिछड़ गया कोई अकेला सैनिक ..जो सुना था ,सच होने लगा ..भूख मर गई ...नींद भी रफा-दफा ..मरने मरने जैसी हालत हो गई .खुशकिस्मती से इसके पास एक दिमाग भी था ,जो हिरण की तरह कुलांचे मारता था ....अक्सर प्रेम महाविद्यालय के परिसर से निकल भागता और तर्क के उल्लू के साथ हो लेता ..ज्यादा देर नहीं चल पाता  था ये बुद्धि -बुद्धि का खेल ...प्रेम फिर मति भ्रष्ट कर देता , और हिरण मिमियाता हुआ वापस आ जाता दिल के जंगल में .

अब कहानी यहाँ आ पहुंची है कि  दोनों जानते हैं ,मानते हैं ..पर दिल और दिमाग के बीच गेंद -बल्ले जैसी स्थिति है ..लड़ रहे हैं पडोसी देशों की तरह और कर रहे हैं जान-माल का अनाप-शनाप नुक्सान 

होना जाना कुछ नहीं है ..दोनों ही पात्र अपने अपने अहम् के दायरे में क़ैद हैं ..देखे बिना चैन नहीं और आमने-सामने आ जाएँ तो मुगदर लिए पहलवानों की तरह दूसरे  को चित करने की जी-तोड़ कोशिश ..काटते हैं,सहलाते हैं ,बहलाते हैं झुठलाते हैं ..नोचते हैं भंभोडते हैं ..लफ़्ज़ों की दुधारी से क़त्ल कर अपनी अपनी राह हो लेते हैं ..अगले दिन फिर ..बच्चों की तरह हाथ मिला लेते हैं ,,बिना रोये आंसुओ का ढेर लगा देते हैं और कभी कलेजे में लबालब प्यार आँखों के रास्ते छलक जाता है ...

और एक दिन अचानक इसने एक फैसला किया ..उससे पूछे बिना ...यकायक ऐलान कर दिया ..
   ''मैं रोज़ रोज़ तुमसे मिलने नहीं आ सकती'' , 
और सुनो ,मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकती ..आखिरकार स्वीकार भी कर लिया .
''तुम्हे मेरे साथ चलना होगा ''.वो कुछ कहता कि इसने उसका हाथ पकड़ लिया ,''मैं तुम्हे लेकर जा रही हूँ ''
    इस फैसले पर अवाक वो खुद को इसके  साथ जाता देखता रहा ..
    वो खडा देखता रहा 
    और वो उसे लेकर चली गई ....



( 09-03-2013)