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Sunday 13 October 2013

औरत










हंसी के दायरे सिमट कर
खामोशी की एक सीधी  रेखा में
तब्दील हो चुके थे
लिबास से बाहर झांकता
एक ज़र्द चेहरा
अन्दर की ओर मुड़े दो हाथ
सिमटे पैरों के पंजे थे
कोशिश करने पर बमुश्किल
सुनी जा सकने वाली आवाज़ थी
घर और बाज़ार के बीच रास्ते में
दहशतें साथ चलने लगी थी
अजनबियों में दोस्त ढूँढने की कला
अब दोस्तों में अजनबी ढूँढने की
आदत बन गई थी
बंद दरवाजों की झिर्रियों से
आसमान के अन्दर आने की
गुस्ताखी नागवार थी
चौखट से एक कदम बाहर
और सदियों की दहशत
यही कमाई थी आज की
आजकल उसे
शिद्दत से महसूस होने लगा था
वो जो जिस्म लिए फिरती है
औरत का है

 

Wednesday 7 August 2013

कुछ अफ़साने : लाजिमी हैं



                                            कुछ अफ़साने : लाजिमी हैं ---- (2)
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हम इसके बारे में ज्यादा , उसके बारे में कम बात करेंगे  .यूँ तो उसके बिना इसका ज़िक्र अधूरा है ,तो जनाब आते रहेंगे बीच-बीच में .हो सकता है कई बार पूरी तवज़्ज़ो ही चुरा ले जाएँ .

पता है न ,दोनों के बीच का रिश्ता ..कितना गहरा है ..एक-दूसरे के सिवा किसी से नहीं लड़ते ,न ही किसी के साथ  वो जुबान  इस्तेमाल करते हैं,जो एक-दूसरे के साथ  एक-दूसरे के लिए करते हैं .वैसे जुबान इसकी ज्यादा तेज़ है ,उसे तो इसकी बराबरी पर आने के लिए धार देनी पड़ी है .सारे तक़ल्लुफ़ उठा कर ताक पर रख दिए गए हैं . एक वक़्त था जब कभी इसकी जुबान  ज़्यादा तीखी हो जाती और उसे काटने लगती तो ये अफ़सोस जता दिया करती .अफ़सोस तो आज भी होता है,पर उसे हवा तक नहीं लगने देती .वो भी खिलाड़ी है ,सुलगने देता है इसे अपनी ही करनी की आग में , बाद में शातिर  पानी के छींटें डाल कर पहल भी कर लेता है ..जल-जल कर कोयला हुई एक बूँद से ही शांत हो जाती है .

कई बार बोरिया-बिस्तर बाँध कर रुखसती की तैयारी कर चुकी थी . हवा की  सरसराहट में हलकी सी भी उसकी आहट  मिलती ,इरादे ढेर हो जाते इसके . वो जानता था ..इसकी रवानगी से ठीक पहले नमू होता ..उलझा देता इसे इधर-उधर की बातों में ..जब तक इसे कुछ समझ आता ,तब तक इसका सारा  सामान वापिस अपनी-अपनी जगह पर टिक चुका होता और खुद भी उसके कंधे पर सर टिकाये सो रही होती .

वो दुनियादार था ,इसकी दुनिया और दुनियादारी अब बस उस तक ही  सिमट कर रह गई थी .सारा दिन बैठी उसे देखती .वो काम करता रहता ,ये काम का कबाड़ा करती रहती .कई बार बेचारा काम छोड़ कर बेपर की बेवजह सुनता रहता ..जब-जब उसने सुनने में आना-कानी की ,तब-तब इसने ताबड़-तोड़ सामान उठा-उठा कर पटक दिया उसके ऊपर ..

उसके आने से इसकी दुनिया में भारी उलट-पुलट हुई थी ,उसकी सारी  अच्छाइयों को क़ुबूल करने के बावजूद इल्ज़ामात  से बरी नहीं किया था इसने उसे ,दिन भर  कोसती उसे ..यही एक काम था जो उससे मिलने के बाद पूरे मन से किया करती ..कभी उसे खडूस कहती तो कभी खूसट .. कभी फुद्दू तो कभी भौंदू .वो सब जानता था ,इसे भी कोई परवाह नहीं थी .उस से भी बड़े-बड़े कारनामे करती .इससे बात करते ज़रा उसकी तवज़्ज़ो भटकी नहीं कि लम्बे-लम्बे नाखूनों से नोंच-खरोंच डालती उसे ,जवाब देने में पल भर की चूक हुई नहीं,चेहरे से नज़र हटी नहीं कि उसका जिस्म छलनी कर देती ..बात-बात में गिरहबान पकड़ लेती ...उसकी किसी भी कमीज या कुर्ते में एक भी बटन बाकी नहीं बचा था .अपने बचाव के लिए हाथ तक न बढाता वो ..इसके तसव्वुर की हदें जानता था ,ये इसकी दुनिया थी ,जिसमे वो खलल नहीं डालना चाहता था ,ये भी जानता था कि  हाथ ने तसव्वुर को छू  भी लिया तो ये रिश्ता हज़ारों फीट की ऊंचाई  से सीधे गहरी खाई में जा गिरेगा .

इसका  उसकी दुनिया में आने-जाने का कोई वक़्त न था ,अचानक आती ,उसके हाथ से किताब छीन  कर रख देती ..उसके पास आकर सर से सर मिलाकर  अंग्रेजी का 'एल' बनाती और  सो जाती ,नींद में उठती ,उसकी नाक से जोर से नाक रगडती ,उसके बाल सूंघती और इत्मीनान से फिर सो जाती ...तमाम एहतियात के बावजूद  चूक हो गई उससे और पूछ बैठा एक दिन -''ये तेरे  अन्दर कौन सा जानवर है ,जो तुझ से इस तरह की हरकतें करवाता है ? '' वो उठी ... पूरी ताक़त से अपने सींग उसके पेट में घुसेड दिए ,उसकी आँखों पर पंजों से वार किये ,  गर्दन में दांत गड़ा दिए ,कमर में दुलत्ती जड़ी ,कूद कर  कंधे पर सवार हो गई और उसके बालों से लटक कर झूला झूलते झूलते  माथे पर  डंस लिया ,हिनहिनाई और फुर्र से उड़ गई .. 

Monday 13 May 2013

उफ़ !




उफ़ !
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कह भी दो न चुप रहो
कि सहना अब मुहाल है

मैं रहूँ कि न रहूँ
कुछ कहूं कि  न कहूं
तुम हो तो हर सवाल है

जो रुक गई तो रुक गई
गर चल पड़ी तो चल  पड़ी
ये सांस भी कमाल है

आह कहूँ  कि  वाह कहूँ
आबाद कि  तबाह कहूँ
ये जीस्त भी  बवाल है

07 -05 -2013


Tuesday 7 May 2013

अंत मालूम है।









कहानियों में क्या होता है ,मुझे मालूम है ..जैसे मुझे कहानी का अंत मालूम है। शुरू कहाँ से होती है कहानी ,ये तो किसी को भी नहीं पता होता। बीच की कहानी आपकी ,मेरी ,सबकी होती है ,ये कहानी मेरी तो नहीं है ,आपकी हो सकती है ,अगर आपकी नहीं है तो शर्तिया ये उसी की है ,वो किरदार  ही ऐसा है ,हकीकी कम,अफसानों से निकला ज्यादा लगता है, .हँसता है तो अहसान करता है ,रोता है तो शायरी करता है ,खाना खाता है तो अध्यात्म और दर्शन की तरकारी के साथ ....हाँ ,जब गालियाँ देता है तो बहुत अपना सा लगता है .सीधी दिल से आती गाली जुबान पर ऐसे पसर जाती है ,जैसे दिन भर का काम निपटा कर मालकिन की गैर-हाजिरी     में उनके डबल बेड पर पसरी कामवाली --अंजाम की परवाह किये बगैर ..

पता नहीं,कहाँ से आया था ...पर हक यूँ जमाता सबके ऊपर ...जैसे सब उसकी जेब में धरे कंचे हों ,जिन्हें मर्ज़ी से ठोकता ,बजाता ,खेलता और उछाल देता ..ढूँढने पर कुछ अलग सा नहीं मिलता था उसकी शख्सियत में . लोग दो ही तरह की राय रखते थे कि बहुत  नेकदिल इंसान है और दूसरी राय यह कि बहुत दिलफेंक इंसान है ..इस बात से किसी को नाइत्तफाकी नहीं थी कि दिल था उसके पास , संशय दिल की फितरत को लेकर था कि उसमे 'नेकी' ज्यादा थी या 'फेंकी '..

लिहाज़ा खुद कभी खुलासा नहीं किया था उसने इस बावत -जब वो आया था इस इलाके में , कुछ् कहानियां साथ आई थी उसके ...वही पुरानी ...अपनों से धोखा ,प्यार में धोखा ...एक कहानी उसके चेहरे पर भी लिखी हुई थी ,जो शायद ही किसी ने पढने की कोशिश की हो ,दरअसल पढने की आदत अब रही भी कहाँ थी . अफसानों से निकले पात्र अमूमन खूबसूरत ,अच्छी कद-काठी के,संगीत-कला के पारखी ,प्रेम से लबरेज़ होते हैं ..पर इस पात्र में एक खासियत और भी है -यह सुबह काम पर जाता है और शाम को घर आता है ,यह शाम को बैठ कर न तो चैन की और न ही कोई और बंसी बजाता है .अपना दर्द अपडेट करता है ...और ख़ुशी भी .अलबत्ता ज़िन्दगी जीने के ढंग को लेकर इसकी राय बहुत स्पष्ट नहीं है ,पर मौत को जश्न मानता है ..अब ये नहीं पता,किसकी मौत की बात करता है .

इसी कहानी में इसी पात्र के आस-पास एक और विचित्र पात्र है .कहानी की मांग के हिसाब से इसे स्त्री पात्र होना चाहिए ..इत्तेफ़ाक़न यह स्त्री पात्र ही है ,खुद को कभी कुदरत के ढाले सांचे में पाकर खुश होती नहीं देखी  गई ,समाज को मुंह बिचकाती है ..पूछो ..तो मर्द की ज़िन्दगी भी नहीं चाहती ...अपनी मर्ज़ी से लहराते  बाल ,कभी जूडा ,गहरी लिपस्टिक ,काजल ,साडी ,झुमके ,पायल जैसे सारे आडम्बर करती देखी जाती  है .अपनी मर्ज़ी के नाम पर इसे अपनी मर्ज़ी से ही जीना होता है ,मर्ज़ी से कपडे पहनना या न पहनना ,मर्ज़ी से हँसना और हंसी का सुर-ताल तय करना ..रोना भी मर्ज़ी से ही ...यूँ ही रोते -रोते अपना दर्द अपडेट  करते टकरा गई उससे ,,यहाँ इसकी मर्ज़ी शामिल नहीं थी .कहानी बननी थी,बन गई .....दुनिया-जहान .ज्ञान-विज्ञान ,धर्म-दर्शन ,साहित्य ,इतिहास,भूगोल से आ पहुंची वहीँ ....अब प्रेम का गणित ,नया नया हिसाब-किताब ...दोनों ही चकरा गए ..उसका तो पता नहीं,पर इसे प्यार नहीं करना था ,पहले भी अपनी मर्ज़ी से ऐसा ही विकल्प  चुना था इसने ..प्यार के नाम पर ही बौखला  जाती ...प्रेम की गलियों से  रोज़ गुज़रते आखिर इसने कुछ दिन वहीँ ठहरने का फैसला किया .नया विषय था ,प्रशिक्षण ज़रूरी था .अब हर दिन की चुनौतियों ने इसकी हालत ऐसी कर दी कि  जैसे मोर्चे पर दनादन गोलियों के बीच टुकड़ी से बिछड़ गया कोई अकेला सैनिक ..जो सुना था ,सच होने लगा ..भूख मर गई ...नींद भी रफा-दफा ..मरने मरने जैसी हालत हो गई .खुशकिस्मती से इसके पास एक दिमाग भी था ,जो हिरण की तरह कुलांचे मारता था ....अक्सर प्रेम महाविद्यालय के परिसर से निकल भागता और तर्क के उल्लू के साथ हो लेता ..ज्यादा देर नहीं चल पाता  था ये बुद्धि -बुद्धि का खेल ...प्रेम फिर मति भ्रष्ट कर देता , और हिरण मिमियाता हुआ वापस आ जाता दिल के जंगल में .

अब कहानी यहाँ आ पहुंची है कि  दोनों जानते हैं ,मानते हैं ..पर दिल और दिमाग के बीच गेंद -बल्ले जैसी स्थिति है ..लड़ रहे हैं पडोसी देशों की तरह और कर रहे हैं जान-माल का अनाप-शनाप नुक्सान 

होना जाना कुछ नहीं है ..दोनों ही पात्र अपने अपने अहम् के दायरे में क़ैद हैं ..देखे बिना चैन नहीं और आमने-सामने आ जाएँ तो मुगदर लिए पहलवानों की तरह दूसरे  को चित करने की जी-तोड़ कोशिश ..काटते हैं,सहलाते हैं ,बहलाते हैं झुठलाते हैं ..नोचते हैं भंभोडते हैं ..लफ़्ज़ों की दुधारी से क़त्ल कर अपनी अपनी राह हो लेते हैं ..अगले दिन फिर ..बच्चों की तरह हाथ मिला लेते हैं ,,बिना रोये आंसुओ का ढेर लगा देते हैं और कभी कलेजे में लबालब प्यार आँखों के रास्ते छलक जाता है ...

और एक दिन अचानक इसने एक फैसला किया ..उससे पूछे बिना ...यकायक ऐलान कर दिया ..
   ''मैं रोज़ रोज़ तुमसे मिलने नहीं आ सकती'' , 
और सुनो ,मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकती ..आखिरकार स्वीकार भी कर लिया .
''तुम्हे मेरे साथ चलना होगा ''.वो कुछ कहता कि इसने उसका हाथ पकड़ लिया ,''मैं तुम्हे लेकर जा रही हूँ ''
    इस फैसले पर अवाक वो खुद को इसके  साथ जाता देखता रहा ..
    वो खडा देखता रहा 
    और वो उसे लेकर चली गई ....



( 09-03-2013)

Monday 29 April 2013

विधि









विधि 
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एक औरत लें 
किसी भी धर्म ,जाति ,उम्र की 
पेट के नीचे 
उसे बीचों-बीच चीर दें 
चाहें तो किसी भी उपलब्ध 
तीखे पैने  औज़ार से 
उसका गर्भाशय ,अंतड़ियां बाहर निकाल दें 
बंद कमरे ,खेत ,सड़क या बस में 
सुविधानुसार 
उसमे कंकड़,पत्थर ,बजरी ,
बोतल ,मोमबत्ती,छुरी-कांटे और 
अपनी  सडांध भर दें 
कई दिन तक ,कुछ लोग 
बारी बारी से भरते रहें 
जब आप पक जाएँ 
तो उसे सड़क पर ,रेल की पटरी पर 
खेत में या पोखर में छोड़ दें 
पेड़ पर भी लटका सकते हैं 
ध्यान रहे ,उलटा लटकाएं .
उसी की साडी या दुपट्टे से 
टांग कर पेश करें 

काम तमाम न समझें 
अभिनव प्रयोगों के लिए असीम संभावनाएं हैं।

Saturday 9 February 2013

कविता नहीं लिखती थी


बकवास करती थी बहुत
देखा था
हंसती भी बहुत थी
सोशल थी ,वर्कर थी ,
पॉपुलर थी ,सेंसिटिव थी

कुछ गलत फहमियाँ भी थी उसे
( हो जाती हैं )
इश्क -मुहब्बत में पड़ी नहीं थी
(घनी ज़ालिम थी )
अच्छाइयां भी थी उसमे
(कविता नहीं लिखती थी )
मर्दों को लम्पट नहीं समझती थी
(पाला जो नहीं पडा था )
गाली-गलौज कर लेती थी
( मौके और दस्तूर के हिसाब से )
 हाथापाई भी कर लेती थी
( मन करता तो )
चीखने -चिल्लाने से परहेज़ नहीं करती थी
( यूँ  बहुत शर्मीली थी )

ये थी -थी क्या लगा रखा है
मरी नहीं है अभी
मरने की प्रक्रिया में हैं ...

Thursday 24 January 2013

मैं कह नहीं पायी





कभी मैं कह नहीं पायी 
कभी मुझे कहने नहीं दिया 
क्या कहती 
यही न कि 
थोडा जीने दो 
जब भी बाहर झांकना चाहा 
आँखों पर हाथ रख दिया 
क्या देखती मैं 
जो देखा था .. उसके बाद 
पाँव बाहर रखना चाहा 
दरवाजे पर सांकल थी 
कहाँ जाती मैं 
खुद को रौंदती वापिस आई 
हर बार 
पहुंची कहीं नहीं 
न जी सकी 
न मर सकी 
देखती हूँ फटी फटी आँखों से 
दुनिया 
जो आधी भी मेरी नहीं है