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Sunday 17 June 2012
Wednesday 13 June 2012
वे सुण
वे
सुण
बड़ा रिस्की ज्या हो गिया ऐ
सारा मामला
हाल माड़ा ऐ मिरा
जित्थे वेखां
तूं दिसदा एं
गड्डी दे ड्रेवर विच
होटल दे बैरे विच
दफ्तर दे चपरासी विच
वे
सुण
एस तरां चल नी होणी
जे आणा है ते आ फेर
कदे लफ्जां दा सौदागर बण के
उडीक रईं आं
कदे पढ़ेंगा ते कहेंगा फखर नाल
जिस्म औरत दा
नीयत इंसान दी ते ज़हन कुदरत दा
लेके जम्मी सी
हक दे नां ते ज़ुल्म नई कीत्ता
फ़र्ज़ दे नां ते ज़ुल्म सिहा नई
वे
सुण
ना कवीं कदे जिस्म मैनू
ना कवीं कदे हुस्न
ना रुबाई ना ग़ज़ल कवीं
बण जावांगी कुज वी तेरी खातिर
वे
सुण
तेरे वजूद नू अपना मनया
इश्क़ लई इश्क़ करना सिखया
घुटदे साहां नाल
क़ुबूल करना सिखया
ते पत्थर हिक्क रखना सिखया
वे
सुण
तू मैंनू मगरूर कैन्ना एं
मैं तैंनू इश्क़ कैंनी आं
Thursday 7 June 2012
एक औरत
आँखें बंद होती और
दुनिया के दरवाज़े खुल जाते
आम बहुत ख़ास हो जाता
अलफ़ाज़ सजे-धजे ,नए -नए
खूबसूरत लिबास में
ज़हन पर दस्तक देते
वो अधमुंदी आँखों से पकडती ,
दिल के करीब लाती
महसूस करती
साँसें रफ़्तार पकडती
ज़हन जज़्बात बेकाबू हो जाते
आँखें खुल जाती
तब
न अह्सास न अलफ़ाज़
एक औरत
बिस्तर पर दम तोड़ रही होती ..
Saturday 2 June 2012
लाहौल विला !
लाहौल विला !
वो औरत थी !
गलियारे से गुज़रती
सब अवाक रह जाते
बला की खूबसूरत ,ठहरी ठहरी सी
इस वक़्त से पहले भी एक वक़्त था
वो सिर्फ ख़ूबसूरती थी ,
नज़ाक़त थी ,मासूमियत थी .
वक़्त का कहर ..
चेहरा बदल गया
दाग नमूदार होने लगे
जिस्म ढलने लगा
मासूमियत खो गई
या ,खुद भी खो सी गई ..
क्या हुआ उसे ....
वो औरत से इंसान हो रही थी
नहीं जाना सजना -संवरना
जाना तो
बिखरना -संभलना -बिखरना
जाना तो
लम्हा लम्हा जीना
लम्हा लम्हा मरना
उसके और उसके वजूद की लड़ाई
जानलेवा थी
मर रही थी
जैसे जी रही थी
गिर रही थी
जैसे उठ रही थी
वो औरत से इंसान हो रही थी
अपना वजूद महसूस कर रही थी
ज़हन में हो रहे धमाके सुन रही थी
धमाके दहला रहे थे उसे
कैसे कहती
उसे कुछ हुआ था
कैसे क़ुबूल करती ..
वो गुनहगार थी
लाहौल विला !
वो औरत थी ?
या लानत थी ?
वो लानत नहीं करिश्मा थी
जीना चाहती थी
जीना जानती थी
रास्ता बना रही थी
रास्ता बन रहा था ..
(Picture from web)
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