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Thursday 3 September 2015

कुछ अफ़साने : लाज़िमी हैं

कुछ अफ़साने : लाज़िमी हैं --(7)

ये कुछ नया ढंग था। सर ढका हुआ था , और चेहरा भी। ऐसा ही हुलिया तो इसके दोस्त का था , और ऐसा ही भाई  का । पर वो दोनों तो नहीं आने वाले थे आज। सर से मुआइना करते - करते नज़र ज्यों ही पैरों पर पड़ी , उसने राहत की सांस ली … तो आ गए जनाब ....  और बस , उसे खुराफात सूझने लगी। वो धीरे - धीरे चलता अंदर आ गया। गरदन घुमाता,सर खुजाता  पहुँच गया अपने वाले  कोने में। सर से साफा उतारा  और बिना कुछ बोले पसर गया दीवान पर। जिस तरह वो पसरा था , उसे देखकर  इसे अपने  शहर  के सांड याद  आ गए ,  जो बीच घंटाघर रास्ता रोक कर पसरे रहते। भगाओ तो सींग मार कर भगा  देते थे। इतना तो यक़ीन था कि सींग नहीं मारेगा। नथुने फड़काएगा ,गरदन झटकायेगा और कॉफ़ी पीकर सो जाएगा।

आज वो नहीं , उसके पैर पहचान बनकर इसके दरवाजे आये थे।

''सुन ,तेरा सर तेरे धड़ पर ना भी रखा हो , तब भी मैं तुझे पहचान सकती हूँ। ''

बहुत बेज़ारी से सर उठाया उसने , अनमना सा उसकी तरफ देखने लगा , जैसे कह रहा हो 'भर पाया मैं तेरी बातों से ', लेटे - लेटे ही पैरों से चप्पल  खिसकायी और दीवार की तरफ करवट बदल ली। फर्श पर रेत बिखर  गई। रेत का बिखरना और इसका बिफरना एक साथ हुआ। काबू किया खुद को और उसे अपने रौशन ख़याल से वाकिफ कराने लगी। जोश में थी।

''चेहरे ही क्यों पहचान हों , पैर क्यों नहीं। पैर भी तो कितने अलग होते हैं हम सब के। कितना मज़ा आता ये कहने में , ''ला ला ला के पैर कितने भारतीय हैं , री री री के पैर क्लियोपेट्रा की तरह और ना ना ना के  पैर मर्लिन मुनरो  जैसे  …शा शा शा के पैरों  में  पंजाब के जालंधर की छाप हैं। और वो  ... क्या नाम है  .... तेरी पहाड़न का ? उसके तो पैरों के नाखून मंगल चाचा की भैंस यामा की तरह  … लम्बे ...नुकीले , इसे तू मेरी हसद समझ ले। और मेरे पैर - डी सी पी मीणा की तरह , एकदम पुलसिया , उनके लिए जो बातों से नहीं मानते। रहे तेरे पैर ,तो वो भूत के पाँव -- बिना बताए भूत की तरह गायब।

'' सोने भी दे मुझे। ''
'' ये मुमकिन नहीं। ''
'' क्या बिगाड़ा है मैंने तेरा  ? ''
'' क्या बिगाड़ सकता है तू  ? ''
'' माफ़ी मांग रहा हूँ , अब सोने दे। ''
'' मैं मांग लेती हूँ।  तू उठ के बैठ। ''
'' क्या बिगाड़ा है मैंने तेरा ? ''
'' डायलॉग रिपीट  करेगा तो फ़ाउल हो जाएगा। ''
'' किस जनम का बदला ले रही है ? ''
'' इसी .... बिलकुल इसी जनम का। तू फिर मिला ना मिला। ''
'' टी वी चला दे , रहम कर। शेयर बाज़ार  का बुरा हाल है। ''
''तुझसे भी ज़्यादा ?''
'' क्या चाहती है , पैर पकडूँ तेरे ?''
'' हा हा … पैर  ... हाँ, पकड़ ले। मेरी एड़ी पर मोहब्बत का बोसा दे। ''
''ये क्या बात हुई ?''
'' तू ही तो कहता है कि मोहब्ब्बत में कोई ऊँच नीच नहीं। सब बराबर है। कोई सिर , कोई पैर नहीं होता  ---- वैसे तेरी बातों का भी कोई सिर - पैर नहीं होता।  तू न कहता था जब देर देर रातों को वो लम्बी-लम्बी रूहानी बातें किया करता था   कि सब साँझा , सब हमारा होता है,एक सांस की दूरी है तेरे - मेरे बीच , और तू , मैं हो जाएगा।  जब चेहरा पहचान था तब लब , और अब जब पैर हमारी पहचान हैं तो मोहब्बत का बोसा एड़ी पर ही तो बनता है। ''
'' तुझे पता है , तू क्या कह रही है ''
'' तुझे तो पता है न ,तू क्या क्या कहता है ,किस किस से कहता है --- और क्या क्या करता है ? ''
'' एक कप चाय पिला दे।''
'' भूल रहा है।  डायरी में लिख  कर रख। मेरे साथ  एक कप कॉफ़ी पीता है तू ।''
'' कॉफ़ी ही पिला दे। ''
'' ज़हर कितना ? एक चम्मच ? ''
''तुझे लगता है तू बच जाएगी ? ''
'' मेरी हिफाज़त तो तू करेगा ना । अपनी जान की हिफाज़त नहीं करेगा ? और इतनी ज़ोर से 'सड़प' मत कर , कॉफ़ी है ,ज़हर नहीं। ''
'' क्या पता मेरे ही हाथों मारी जाए ''
'' तू मेरा बाल तक तो छू  नहीं पाया आज तक । ''
'' बाल बाल बची है तू हर बार। हो सकता है ऊपरवाला  इतना मेहरबान ना हो इस बार। ''
''हो सकता है कोई नीचेवाला  तेरे गले के नाप का फंदा बनवा कर बैठा हो। '' 
''मेरे हाथ ही काफी हैं तेरे लिए। ''
''तू तो कहता है मैं मज़ाक नहीं करता। ''
'' संजीदा मज़ाक कर लेता हूँ। ''
''मैं भी मौके का फायदा उठा लेती हूँ आज। मेरा भी बहुत मन है तेरे साथ मज़ाक करने का। मैं मज़ाक कर रही हूँ कि तू तभी तक महफूज़ है , जब तक मैं सलामत हूँ। जब तेरा जीने से मन भर जाए , तू ज़िन्दगी से ऊब जाए , तो मुझे गोली मार देना। सुबह उठकर पेट साफ़ करने से पहले ,मुंह साफ़ करते वक़्त पहले कुल्ले के साथ पहली दुआ मेरे लिए किया कर कि मुझे बुखार भी ना हो , नहीं तो मच्छर के हलक में हाथ घुसेड़ा तो तेरा ही नाम निकलेगा। तेरा दर्जा अब आई एस आई का है , मच्छर तेरा एजेंट , ..... और मैं हिंदुस्तान। ''

''कुछ काम भी कर लिया कर , कितना बोलती है। "
'' अरे हाँ , अच्छा याद दिलाया। काम शुरू किया है मैंने। ''
''शुक्र है ,क्या काम ?''
''कुंडली बनाने का, तेरी भी बनायी है। ''
'' ..... ''
'' तेरा पैर क्यों लटक गया ? ''
'' …… ''
''अरे , तेरे पैर का रंग क्यों उड़ गया ?''
''मैं चलता हूँ। ''
''सुन ,तू अपनी मोहब्बतें जारी रख और मुझे अपना पैर अब कभी मत दिखाना। ''

वो जिन पैरों से आया था , उन्ही पैरों से लौट गया।

कॉफी ठंडी यख हो चुकी थी।
पहला घूँट अभी हलक में ही था ।

कुछ अफ़साने : लाज़िमी हैं


कुछ अफ़साने : लाज़िमी हैं -(6)

दरवाज़े की घंटी बजी ...

हिरण की तरह कुलाँचे मारती हुई दरवाज़े की तरफ दौड़ी   ...  रास्ते में एक कुर्सी , एक मेज़,एक ज़मीन पर औंधे पड़े गद्दे  और एक पायदान से टकराई  .. हैरत की बात थी कि किसी को भी चोट नहीं आई थी  .. गुलदान अपनी अच्छी किस्मत के चलते पहले  ही बच गया था ... गनीमत थी कि ये फासला दस क़दम का था।

सामने खड़ा था  …  उसकी आँखों में गिलहरियाँ फुदक रही थी  ... इसने उल्लू की तरह गोल गोल आँखें घुमाते हुए अच्छी तरह तसल्ली की कि जो सामने खड़ा था ,ये वो ही था  … क़द  .. हाँ  .. वही था , रंगत   ... उसी की थी  … आँखें  … बिलकुल वही ,और आवाज़ भी  … पर वो बोला कहाँ था ? एक अरसे बाद  देख रही थी उसे .. उसी  की उम्मीद में तो  ताबड़तोड़ चढ़ाई की थी दरवाज़े पर  … वो सामने भी था  … यक़ीन करना फिर भी मुश्किल हो रहा था  …  मुंह खोले खड़ी थी उसके अंदर आने की उम्मीद में। वो था कि अंदर आने का नाम ही नहीं ले रहा था  … इसके दिमाग की फिरकी चलनी शुरू हो चुकी थी 'इतनी आसानी से थोड़े ही आएगा ड्रामेबाज़।'  मच्छर की तरह  भिनभिनाई , 'अब क्या आरती उतारूँ  .. बांसुरी बजाऊं  .. कोयल बुलाऊँ   ..... '

वो इत्मीनान से खड़ा देख रहा था। इससे पहले कि वो जो अच्छा अच्छा सोच रही थी ,उसे उगल देती , वो बोल पड़ा  ..

'' मैं जो कहने आया हूँ , भूल जाऊं मैं  ,मुझे अंदर आने दे। मुंह बंद कर ले और दरवाज़ा खोल दे ''
 ''तू मुझे कन्फ़यूज़ करता है ''
 ''अब मैंने क्या किया ?''
 '' तू मुझे बताकर भी तो आ सकता था। ''
 ''मैं क्या बरात लेकर आ रहा था ?"
  ''लाया क्यों नहीं ?''
 ''तुझे मुझसे  शादी करनी है न ?''
 ''तो ?''
 '' कर।  ''
 ''पागल हुआ है ! ''
 "तो तूने झूठ बोला था।  ''
 ''वो तेरा पेशा है ''
 ''सच साबित कर ''
 ''तेरी तबियत ठीक है न ?''
 '' बात मत बदल ''
 ''बात बदल ... खुदा के वास्ते ''
 ''मैं तुझसे शादी करने आया हूँ ''
 ''तो कर ''
 ''तू चाहती थी न ?''
 ''तू नहीं चाहता ?''
 ''मैं तुझे चाहता हूँ ''

या खुदा !!!

 ''मैं जाऊं ?''
 ''तू मुझे कन्फ्यूज़ करता है  … चाहता क्या है ?''
 ''जो तू चाहती है ''
''अच्छा, ठीक है  … कर लेते हैं ''
''शादी कर रही है या अहसान '
 ''अहसान तो तेरा है ,सारे काम छोड़ कर भरी दुपहरी में मुझसे शादी करने आया है  ... बारात  भी नहीं लाया   किफायतशार कबूतर , जो तू न मिलता  यूँ ही उम्र गुज़र जानी थी मेरी तो ,घर के दालान में भैंस की तरह जुगाली  करते करते  ''
 '' बकवास मत कर ,वो कर जो रोज़ तोते की तरह रटती आई है अब तक ''
 ''शादी करवाएगा कौन ? लाया है किसी को साथ ?''
 ''बात तेरी मेरी है  .. तीसरे का क्या काम ?''
 ''यही प्रॉब्लम है तेरी , यही प्रॉब्लम है  .. तीसरे के नाम पर बिच्छू लड़ने लगते हैं तुझे ... तेरे साथ शादी कर के तो बच्चे भी नहीं आने के मेरी ज़िन्दगी में  ... किसी तीसरे के नाम पर ही तेरा रंग सफेद पीला नीला काला हो जाता है। "
  ''तू क्यों लाल हो रही है ?''
  '' तू जा यहां से ''
  ''तू मुकर रही है ''
  '' आज ही करेगा शादी ? ''
  ''अभी  . ''

अभी ..... अभी यहीं तो था  …  ये लहज़ा तो  उसका नहीं था।गिन गिन कर लफ्ज़ बोलने वाला  … हर  लफ्ज़ का हिसाब अपने डायरी में इन्दराज करने वाला  … लफ़्ज़ों से बादलों के फाहे रखने वाला  … इतना बेबाक  … कभी नहीं  ....  पर आया तो वो शर्तिया था। महज़ ख्याल नहीं था। हाँ ,आया था कई  साल पहले  …

(03-02-2015)





कुछ अफ़साने : लाजिमी हैं

कुछ अफ़साने : लाजिमी हैं (5 )
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 बहुत परेशान हाल में थी। शख्सियत के दोनों पहलू इस क़दर गुत्थम -गुत्था हो जाते कि उन्हें छुडाना मुश्किल हो जाता। नरम पहलू जितने समझौते कर लेता ,आक्रामक पहलू उतना ही हावी होने लगता। आक्रामक पहलू को हम दूसरा कहेंगे । ज़िन्दगी के बाकी मुद्दे तो अब पीछे छूट गए थे ,असली मुद्दा तो वो था। नरम पहलू तो उसके ऊपर उंगली   भी न उठाने देता ,दूसरा पंजे झाड कर उसके पीछे पड़ा रहता। मुसलसल टकराव के हालात बने रहते। दूसरे पहलू को भारी ऐतराज़ था नरम  पहलू की दरियादिली औए लचीलेपन पर। नरम पहलू एक न सुनता और अपनी ही धुन में रहता ,सब कुछ न्यौछावर करने को तैयार।

कुछ दिनों से आया बदलाव दूसरा भी महसूस कर रहा था। नरम गुमसुम रहने लगा था। एक स्याही सी फैली रहती उसके चेहरे पर। आँखें वीरान  … फैली फैली सी ….  जैसे कुछ खो गया हो उसका …  दूसरा बार बार पूछता कि  आखिर हुआ क्या है उसे ,जवाब में नरम उदास आँखों से देखता और मुंह फेर लेता।

नरम  कैसे बताता कि  जो उंगली लगातार उसको निशाने पर रखे है ,वो और किसी की नहीं ,उसकी है। दूसरा जानता था कि  इसके और उसके बीच भारी उठा-पटक चल रही थी। नरम ज्यादा बोल भी नहीं पाता  था।,चाहकर भी कुछ न कह पाता।  वो अलफ़ाज़ उसे इतने अश्लील लगे थे कि  अगर उसके हाथ में खंजर होता तो यकीनन वो उसकी और अपनी , दोनों की जान ले लेता।  दूसरा फैसले की स्थिति में आ चुका था ,उसे यह सब बर्दाश्त नहीं था। नरम की गिरती हालत तकलीफ पहुंचा रही थी। नरम भी धीरे धीरे दूसरे  के साथ सहमति की तरफ आ रहा था। दोनों के बीच का फासला कम हो रहा था। उसके अजीबो-गरीब बर्ताव ने दोनों को करीब ला दिया था।

 खुश थी अपने दो विरोधी पहलुओं में बढती नजदीकी  को देखकर …  दिल से  नरम का समर्थन नहीं करती थी …  पर उसके साथ सख्त होना भी गवारा नहीं कर सकती थी। जो चोट इसने खायी थी उसके हाथ ….उसे सहलाने के लिए दोनों एक होकर आगे बढ़ रहे थे इसकी  तरफ।

   वो मुस्करा रही थी। आंसू आँखों की पिछली दीवारों पर फिसल रहे थे।
   वो उसके बारे में बुरा नहीं सोचना चाहती थी। ऐसा करती तो उसका अपना फैसला गलत साबित होता।
   फैसला गलत नहीं था।
 
  उसे  दुआ दी -- आखिर प्यार का यही दस्तूर है।

  दोनों का हाथ थामे भंवर से बाहर आ गई।

मई ,2013