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Friday, 28 September 2012

तुम्हारे लिए





वो जो एक कविता पहले लिखी थी ना
वो तुम्हारे लिए थी
उससे पहले की दो
वो भी तुम्हारे लिए थी
एक मैंने बहुत उदासी में लिखी थी
ख़ुशी में अमूमन मैंने कभी नहीं लिखा था
जिस दिन मैंने बहुत ख़ुशी महसूस की
तुम्हारे लिए ही लिखी
नींद नहीं आई
बहुत सोचा किया
वो जो एक और  लिखी
तुम्हारे लिए ही ..
एक मुराद पूरी हुई
बहुत याद आई
एक और लिख डाली
नाराजगी में जब पांच दिन बात नहीं की थी
जितने दिन ,
उतनी ही और लिखी
बहुत गुस्सा आया यक -ब-यक
जिस दिन
दो की चिन्दियाँ उड़ाई
तीन की धज्जियां
ज़ख्म बह निकला
एक और लिखी गई
जो बह गई उस बहाव में
बहते -बिखरते को समेटना आसान न था
अब तक
बह रहा है सब
कह रहा है कुछ


Tuesday, 18 September 2012

कुछ मेरा सा


वो कुछ कुछ मेरा सा है
कुछ अपना सा
तमाम नफरतें नहीं खींच पायी
एक लकीर मेरे दिल पर

वो खारे पहाड़
वो लदे हुए ऊंटों  की कतार
इत्र के दीवाने
मेले के ख्वाहिशमंद,रौबीले
काबिल और हुनरमंद
पतलून में सलवट को लेकर
फिक्रमंद राजकंवर को
इकलौती कुर्सी पर सहेजे
मल्लाह की पतवार के इशारों पर
दरिया के सीने पर सवार
वो कश्तियाँ
वो ऊंचे द्वार
दूर दूर तक फैला
विशाल घर-आँगन
कतार-बद्ध कर-बद्ध हुजूम


वो सलोनी सी
पढ़ती थी ,गुनती थी
धीमा सा हंसती और सब कह देती
अपनी ही दुनिया में मगन
मुस्कान से जगमगा देती  सब
जो नहीं कर पाता था
माँ के जिस्म पर लदा
एक किलो सोना भी
और उस दिन
सकुचा गई अन्दर तक
जब राजकंवर ने पूछा ,
'ऐ लड़की ,तुझे उर्दू आती है ?

उसे उर्दू आती  थी
और फिर पढ़ते रहे
दोनों ताउम्र
किताबें, रिसालें
और ज़िन्दगी ..
साथ साथ

एक अतृप्त सी तलाश ले जाती है
अंधेरों से गुज़रती
जड़ों की ओर
लौटती है नाकाम
बंद आँखों में बनती-बिगडती
एक तस्वीर
खुद की पहचान खोजती
सहलाती है
रूह पर लिपटी उदासी को
दिखाती है हक़ीकी आईना

कुछ साए हैं
फ़ैल जाते हैं शाम ढले
एक छोर से दूसरे  छोर तक
ढक लेते हैं स्मृतियों को
सायों के भयावह नर्तन में
धब्बे हैं खून के
चिपके  हैं आत्मा पर
एक पूरा ख़ूनी  इतिहास लिखे जाने के बाद

बहता खून
दरक चुके रिश्ते
तमाम दांव-पेंच
नहीं खींच पाए मेरे दिल पर
एक लकीर
जो गिरी थी गाज की तरह सरहद पर
क्यों कि  दूर कहीं है
जिस्म से कटा एक हिस्सा
जिला मियाँ वाली
और है
एक 'काला बाग़'
एक 'माड़ी'

वो ठिकाना था
सपनों का
मेरे अपनों का






Sunday, 16 September 2012




शब्द तैरते हैं उन्मुक्त से
आहलाद बन कभी सतह पर
अवसाद बन डूबते उतरते हैं कभी
कुछ ऊपर कुछ भीतर
बजते हैं जलतरंग से
फुंफकारते  हैं अर्थ जब
सहमे जज़्बात की मछलियाँ
दम तोड़ने लगती हैं
ज़हर घुलने लगता है
विवेक के सागर में
नीला जो जीवन है
फैला है
ज़मीं  से आसमां तक
यकायक काला होने लगता है
शब्दों पर व्याप्त
अर्थ की काली छाया
क़ैद कर उन्हें अपनी सीमा में
डुबो देना चाहती है
शब्द बेबस, बेजुबान ,अवाक ..
दिशाहीन
असमंजस के भंवर में जा फंसे हैं
उनका डूबना तय है

अर्थ ने विश्वासघात किया है .

Monday, 10 September 2012

तार तार कर दो
उधेड़ दो
मेरा  क्या

ज़िन्दगी भी तुम्हारी ,बखिये भी

(2)

कुचलो ,रौंदो
आग लगा दो
अब मत सोचो

यह दर भी तुम्हारा ,यह देस  भी