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Thursday, 24 January 2013

मैं कह नहीं पायी





कभी मैं कह नहीं पायी 
कभी मुझे कहने नहीं दिया 
क्या कहती 
यही न कि 
थोडा जीने दो 
जब भी बाहर झांकना चाहा 
आँखों पर हाथ रख दिया 
क्या देखती मैं 
जो देखा था .. उसके बाद 
पाँव बाहर रखना चाहा 
दरवाजे पर सांकल थी 
कहाँ जाती मैं 
खुद को रौंदती वापिस आई 
हर बार 
पहुंची कहीं नहीं 
न जी सकी 
न मर सकी 
देखती हूँ फटी फटी आँखों से 
दुनिया 
जो आधी भी मेरी नहीं है