हंसी के दायरे सिमट कर
खामोशी की एक सीधी रेखा में
तब्दील हो चुके थे
लिबास से बाहर झांकता
एक ज़र्द चेहरा
अन्दर की ओर मुड़े दो हाथ
सिमटे पैरों के पंजे थे
कोशिश करने पर बमुश्किल
सुनी जा सकने वाली आवाज़ थी
घर और बाज़ार के बीच रास्ते में
दहशतें साथ चलने लगी थी
अजनबियों में दोस्त ढूँढने की कला
अब दोस्तों में अजनबी ढूँढने की
आदत बन गई थी
बंद दरवाजों की झिर्रियों से
आसमान के अन्दर आने की
गुस्ताखी नागवार थी
चौखट से एक कदम बाहर
और सदियों की दहशत
यही कमाई थी आज की
आजकल उसे
शिद्दत से महसूस होने लगा था
वो जो जिस्म लिए फिरती है
औरत का है
शुक्रिया डॉ शास्त्री ..
ReplyDeleteएक अच्छा अनुभव होता है आपके ब्लॉग के ज़रिये जब अन्य रचनाकारों से रु-ब-रु होते हैं .
हार्दिक आभार और शुभकामनाएं ....
वो जो जिस्म लिये फिरती है वह औरत का है............................ुसी औरत का जो माँ हे, बहन है, बेटी है, पत्नी है पर सब से पहले औरत है और उसका एक जिस्म है जिस पे मांस भक्षकों की नजर है।
ReplyDeleteजी, आशा जी ...इस जिस्म को ढोने वाले इसका मर्म बखूबी समझते हैं ..
Deleteकल 18/10/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद!
शुक्रिया यशवंत जी ..
Deleteएक ऐसे मंच पर आना सुखद होगा मेरे लिए ..
बहुत सुन्दर रचना |
ReplyDeleteatest post महिषासुर बध (भाग २ )
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Deleteशुक्रिया कालीपद प्रसाद जी ...
Deleteबहुत सुंदर, सशक्त एवँ प्रभावी रचना ! शुभकामनायें स्वीकार करें वन्दना जी !
ReplyDeleteउत्साहवर्धक शब्दों के लिए शुक्रिया साधना जी ..
Deleteek behtreen rachna ke liye badhai
ReplyDeletePlease visit my site and share your views... Thanks