कुछ अफ़साने : लाजिमी हैं ---- (4)
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उसका चले जाना ,वो भी बिना कुछ कहे ,इसे अखर तो बहुत रहा था ,पर इसने भी हक़ ज़माना छोड़ सा दिया था .संवाद भाप की तरह उड़ने लगा था आजकल .जब वो इससे झूठ बोलता या जब कभी उसकी बात का झूठ होना इसकी समझ में आता तो अन्दर बहुत सारा मर जाती .इस बर्ताब की कोई वजह भी ढूंढना नहीं चाहती थी ,बहुत पहले ही ऐलान कर चुकी थी कि उससे प्यार तो था इसे ,पर भरोसा नहीं था उस पर .और ये भी कि अगर इसके बस में होता तो उससे प्यार नहीं करती .प्यार कथित रासायनिक क्रिया का परिणाम था ,जबकि भरोसा परखे हुए व्यवहार का .
इस क्रिया पर इसका बस नहीं था और अपने व्यवहार पर उसका..
दिक्क़त सिर्फ इतनी ही नहीं थी ,जिस पर भरोसा नहीं करती थी,उसी पर सबसे ज्यादा ऐतबार था - अपने दिल की हर बात कह लेती ,उसकी हर बात का यक़ीन न कर पाती .
सुबह उठी तो कूद कर ख्यालों में आ गया .नाराज़ सी थी ,माथे से बाल परे किये और ख्याल भी झटक दिया .
वो किताब लेकर बैठा ही था कि उसने गर्दन में झटका महसूस किया ,समझते देर नहीं लगी उसे कि मीलों दूर बैठी कहर बरसा रही थी .किताब रख दी ,अनमना सा बाहर आ गया .बिना बताए आ जाने का अफ़सोस होने लगा था उसे अब . खदेड़ कर छोड़ देती थी ,उस मरखनी गाय ने सींग तो उसे कभी नहीं मारा था . पुचकारते ही खिखियाती जंगली बिल्ली पालतू बकरी की तरह मिमियाती हुई उसके पास आ जाती थी .यूँ ही अपने विचारों के ऊंट पर हिचकोले खाता बाहर बगीचे में पेड़ के नीचे आकर बैठ गया .
अक्सर वो इसे समझाने की कोशिश करता ज़िन्दगी की क्षण-भंगुरता ,प्यार की विशालता के बारे में , आज्ञाकारी बच्चे की तरह गर्दन हिला -हिला कर सब समझने का दम भरती ,बिना सहमत हुए चुप-चाप सब सुनती रहती .अगले आधे घंटे तक गार्गी,मैत्रेयी की तरह बुद्धिमत्ता की बातें करती .पर बहुत देर तक अपनी ऊब छिपा नहीं पाती और चढ़ -दौड़ती उसके ऊपर और सारे जीवन-दर्शन की धुलाई कर देती .अब उसकी लाचारी हो जाती इसका समर्थन करना क्यों कि अपनी बात से टस-से-मस नहीं होती .पर रहते दोनों ही असंतुष्ट .खुद नहीं जान पाते कि क्या था ,जो दोनों को बांधे था .इसे तो हर वक़्त रस्सा तुडाने की पड़ी रहती .पर वो अटल खूंटे की तरह इंच भर न हिलता .चीखती-चिल्लाती ,धमा-चौकड़ी मचाती ..हिल के न देता वो .खूंटे के आस-पास चक्कर लगाती रहती और थक कर वहीँ ढेर हो जाती .
मन के सुकून के लिए हज़ारों मील दूर आया था इस जंगल में .जैसे ही ध्यान-मुद्रा में बैठता ,प्रेतात्मा की तरह भटकती हुई आ जाती और उसके इर्द-गिर्द मंडराने लगती .कितनी बार,न जाने कितनी बार इच्छा के हवन में संकल्प की आहुतियाँ डालता ,पर शान्ति नहीं मिलती।
आज का दिन कुछ अलग था ,खामोश और संजीदा .माहौल में हलकी ठंडक थी ,सुहानी सी सुबह थी .पेड़ के नीचे बैठ कर एक अजीब सा सुकून मिला उसे .सिर्फ वो था और कुदरत। .उसने विश्व-कल्याण के लिए प्रार्थना की और ध्यानस्थ हो गया .आज ध्यान भटका नहीं .कोई याद नहीं आया .हल्का महसूस किया उसने .ऐसी आज़ादी महसूस हुई जैसे उम्र-क़ैद से रिहाई हुई हो .गुनगुनाता रहा न जाने कितनी देर ..
रात की ट्रेन से वापसी थी उसकी। एकाएक उतावला हो उठा वो। ट्रेन अपने समय पर पहुँच गई .
घर में मरघट सा सन्नाटा था . हर चीज़ करीने से रखी थी .
वो जंगली कहीं नहीं थी .
21-05-2013
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, प्याज़ के आँसू - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteशुक्रिया..
Deleteसादर ..
क्यों लगा मुझे पहला खंड पढ़ते हुए कि जैसे मुझे पढ़ कर लिख दिया हो ??..... वंदना जी कहाँ से लाती हो ऐसे भावों को पिरोना ? आखर आखर मोती हो जैसे खंड खंड हो माला ....
ReplyDeleteमैं हमेशा ही आपके लेखन की मुरीद हूँ | जैसे कोई ऑंखें बंद किये दृश्य बन रहा हो ... <3 अद्भुत
निशा कुलश्रेष्ठ
होता है ऐसा कई बार ,जब हम ज़िन्दगी के एक ही तरह के अनुभवों से गुज़रते हैं , या एक ही किस्म के लोगों से मिलते हैं ,ज़िन्दगी को पढ़ते हैं ,उन चेहरों को पढ़ते हैं जिनसे हम अक्सर रूबरू होते हैं, बयान करने का ढंग जुदा होता है बस।
Deleteशुक्रिया आपका।