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Monday, 14 May 2012

आँखों के पार

आँखों के पार 
आत्मा में घुला घुला सा 
फैला था दूर -दूर तक 
नीला आकाश 
चमकता सूरज 
छन छन पसरी धूप 
सांझ को सुलगा कर 
शांत होती जा रही थी अब 
बहती शाम के सांवले सलोने गालों पर 
सूरज के छोड़े ज़ख्मों पर 
बादल के फाहे रखता दिन भी 
खो रहा था शाम की मदहोश आँखों में 
जुगनुओं के रेले 
आसमान में तारों के मेले 
चाँद की मनमानी और 
लुका-छिपी का दौर 
रात के लहलहाते आँचल पर 
चांदनी की कसीदाकारी 
हसीन मंज़र था............. 

आह !
एक कराह से तन्द्रा टूटी 
यूँ लगा 
आसमान में  तारा टूटा कोई 

भूल गया था 
यूँ स्टेशन की सीड़ियों पर बैठने की मनाही थी
पीठ सहलाता 
अपने ज़ख्म के लिए 
बादल का फाहा तलाशता 
सोच रहा था ...

काश !
मिल जाता कहीं से 
रात के आँचल का 
थोडा सा टुकड़ा 
तो ढांप लेता 
ज़ख्म अपना 
डंडा मारा भी तो पूरी ताक़त से था 
छोड़ गया था रूह पर निशान 

आह !
टूट गई कविता ..

6 comments:

  1. आपका ब्लॉग पसंद आया....इस उम्मीद में की आगे भी ऐसे ही रचनाये पड़ने को मिलेंगी......आपको फॉलो कर रहा हूँ |

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    1. Thankyou Sanjay ..
      Swaagat hai Blog mein aapka ..

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  2. बहुत संवेदन शील कवितायेँ अर्थ को समेटती,समझाती,बतियाती ......इन कविताओं से गुजरने का मौका मिला मेरा सौभाग्य ....बधाई आप को

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    1. Thankyou Ashvani Ji ..
      aapka itnaa kah denaa bahut maayne rakhtaa hai ..

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